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________________ ७८ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे. [द्विदिविहत्ती ३ १३६. तिरिक्ख० मोह० जह• अजह० के० खे० पोसिदं ? सव्वलोगो । एवं सव्वेइंदिय-पुढवि० बादरपुढवि०-बादरपुढविअपज्ज-सुहुमपुढवि०-पज्जत्तापज्जत्तआउ०-बादरआउ०-बादरआउअपज - सुहुमआउ०-पज्जत्तापज्जत्त - तेउ०-बादरतेउ०वादरतेउअपज्ज०-सुहुमतेउ०-पज्जत्तापज्जत्त-वाउ.-बादरवाउ०-बादरवाउअपज्ज -मुहुमवाउ०-पज्जत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्तेय०-तस्सेव अपज्ज-सव्ववणप्फदि०-सव्वणिगोद०-ओरालियमिस्स-कम्मइय-मदिअण्णाण-सुदअण्णाण-असंजद-तिण्णिले०-अभव०मिच्छा०-असण्णि०-अणाहारि ति (एत्थ खेत्तम्मि भणिदविहाणेण मूलुच्चारणाए पाठभेदो अणुगंतव्यो तदहिप्पारण तिरिक्खोसुलोगस्स असंखो भागमेत्तपोसणुवलंभादो। विशेषार्थ--नारकियोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिवालोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है। स्पर्श भी उतना ही प्राप्त होता है, क्योंकि जो असंज्ञी नरकमें उत्पन्न होते हैं उन्हीं नारकियोंके विग्रहके दसरे समयमें जघन्य स्थिति होती है। किन्त असंज्ञी जीव पहले नरकमें ही उत्पन्न होते हैं और पहले नरकका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं है अतः सामान्यसे नारकियोंमें जघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श क्षेत्रके समान बतलाया है। अजघन्य स्थितिवालोंमें जघन्य स्थितिवालोंको छोड़कर शेष सबका समावेश हो जाता है अतः सामान्यसे अजघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श अनुत्कृष्टके समान बतलाया है। पहली पृथिवीके नारक्यिोंका स्पर्श उनके क्षेत्रके समान ही है अतः यहां पहली पृथिवीके जघन्य और अजघन्य स्थितिवाले नारकियोंका स्पर्श क्षेत्रके समान कहा है। दूसरेसे लेकर छठे नरक तक जघन्य स्थिति उन सम्यग्दृष्टि नारकियोंके अन्तिम समयमें होती है. जिन्होंने नरकमें उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहूर्त बाद सम्यक्त्वको प्राप्त कर लिया है और अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना कर ली है। तथा सातवें नरकमें उन मिथ्यादृष्टि नारकियोंके होती है जो जीवन भर सम्यग्दृष्टि रहे हैं पर अन्तमें मिथ्यादृष्टि हो गये हैं। अब यदि इन जीवोंके स्पर्शका विचार किया जाता है तो वह लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है और इन द्वितीयादि नरकोंके नारकियोंका क्षेत्र भी इतना ही है अतः उक्त नरकोंमें जघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श क्षेत्रके समान बतलाया है। तथा अजघन्य स्थितिवालोंके स्पर्शका खुलासा जैसा ऊपर कर आये हैं उसी प्रकार यहां भी कर लेना चाहिये।। १३६. तिथंचगतिमें मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार सभी एकेन्द्रिय,पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्न, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पयाप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपयाप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिकअपयाप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जल कायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पयाप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक यिक अपयोप्त, वायुकायिक, बादरवायुकायिक, बादर वायुकायिक अपयाप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्मवायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्मवायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरार, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, सभी वनस्पतिकायिक, सभी निगोद, औदारिक, मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये । यहां पर क्षेत्रानुगममें कही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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