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________________ गा० २२.] द्विदिविहत्तीए फोसणं ६ १३७. सव्वपंचिंदियतिरिक्खाणं जह० खेत्तभंगो । अज० अणुक्कस्सभंगो । एवं सव्वमणुस०। ६१३८. देव० मोह० ज० खेत्तभंगो । अज० अणुक्कस्सभंगो । भवणादि जाव भारणच्चुदे त्ति जह० खेत्तभंगो। अज. अणुक्कस्सभंगो । उवरि खेत्तभंगो। एवं वेउव्वियमिस्स०-आहार-आहारमिस्स०-अवगद०-अकसा०-मणपज्ज०-संजद०-सामाहय छेदो०-परिहार०-सुहुम०-जहाक्खादसंजदे त्ति । गई विधिसे मूलोच्चारणाके अनुसार पाठभेद जान लेना चाहिये । उसके अभिप्रायानुसार तिर्यंचोंमें लोकका असंख्यातवां भागमात्र स्पर्शन पाया जाता है । . विशेषार्थ-तियचोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति एकेन्द्रियोंके होती है तथा अजघन्य स्थितिवालोंमें भी एकेन्द्रिय ही मुख्य हैं और वे सब लोकमें पाये जाते हैं अतः तिर्यंचोंमें जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श सब लोक बतलाया है । इसी प्रकार मूलमें जो सब एकेन्द्रिय आदि मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी तियचोंके समान जानना चाहिये। किन्तु मूल उच्चारणामें इन सबका जघन्य स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है। सो वह स्वस्थानस्वस्थान पदकी अपेक्षा जानना चाहिये। १३७. सभी पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शक्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके समान है। इसी प्रकार सभी मनुष्योंके जानना चाहिये। विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय अादि तिर्यंचोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति उन्हीं तिथंचोंके पहले और दूसरे विग्रहमें होती है जो एकेन्द्रिय पर्यायसे आकर उक्त तिर्यंच हुए हैं । अब यदि इनके क्षेत्रका विचार किया जाता है तो वह लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है। स्पर्शनमें भी इससे विशेष अन्तर नहीं पड़ता, अतः सब प्रकारके पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंमें जघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श क्षेत्रके समान बतलाया है। तथा अजघन्य स्थितिवालोंका भंग अनुत्कृष्टके समान बतलानेका कारण यह है कि अजघन्य स्थितिमें जघन्य स्थितिको छोड़कर शेष सब स्थितियोंका ग्रहण हो जाता है और इसलिये इनका स्पर्श अनुत्कृष्टके समान बन जाता है। सब मनुष्योंके भी इसी क्रमसे स्पर्शनका कथन करना चाहिये। इसका यह तात्पर्य है कि सब प्रकारके मनुष्योंमें जघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है और अजघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंके स्पर्शके समान है। ६१३८. देवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले देवोंके स्पर्शके समान है। भवनवासियोंसे लेकर पारण अच्युत.स्वर्ग तकके देवोंमें जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्र के समान है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले उक्त देवोंका स्पर्श अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले उक्त देवोंके स्पर्शके समान है। अच्युत स्वर्गके ऊपर स्पर्श क्षेत्रके समान है। इस प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अतपायी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थानासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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