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________________ नि। जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिनिहत्ती ३ १३६. सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्ज-०तसअपज्ज० पंचिंदियतिरिक्खअपजत्तभंगो। पंचिं- [पंचि०-] पज्ज०-तस-तसपज्ज. मोह० जह• खेत्तभंगो । अज. अणुक्कस्सभंगो । एवं पंचमण-पंचवचि०--इत्थि०--पुरिस०-विहंग-चक्खु०सण्णि त्ति । ___१४०. बादरपुढविपज्ज० बादराउपज्ज.-बादरतेउपज्ज०-बादरवणप्फदिपत्तय पज्ज० मोह० ज० अज० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । 'बादरवाउपज. मोह० ज० अज० लोग० संखेजदिभागो सव्वलोगो वा । ६१४१. वेउव्विय० मोह० जह० खेत्तभंगो। अज० अणुक्कस्सभंगो। एवमाभिणि-सुद०-प्रोहि०-संजदासंजद०-ओहिदंस-तिण्णिले०-सम्मादि०-खइय०-वेदय०उवसम०-सासण-सम्मामि० । . एवं पोसणाणुगमो समत्तो। $ १४२ कालाणुगमो दुविहो-जहण्णओ उक्कस्सओ चेदि । तत्थ उक्कस्सए पयदं । दुविहो णिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह० उक्क० केवचिरं कालादो ? ६ १३६. सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और सअपर्याप्त जीवोंमें स्पर्श पंचे. न्द्रिय तिथंच अपर्याप्तकोंके समान है। पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और बस पर्याप्त जीवों में मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले उक्त जीवोंका स्पर्श उन्हींके अनुत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगज्ञानी, चक्षुदर्शनी और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये । ६१४०. बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंमें मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंमें मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके संख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। ६ १४१. वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श उनके क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले उक्त जीवोंका स्पर्श उनके अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके स्पर्शके समान है। इसी प्रकार आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, पीत आदि तीन लेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदगसम्यग्दृष्टि,उपशमसम्यग्दृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । - इस प्रकार स्पर्शनानुगम समाप्त हुआ। ६१४२. कालानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट। उनमेंसे उत्कृष्ट कालानुगमका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी १-प्रतौ अज० लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । बादरवाउपज. अणुक्कस्सभंगो इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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