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________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए फोसण अणाहारि• कम्मइयभंगो । एवं उक्कस्सपोसणाणुगमो समत्तो । १३४. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह० जह० के० खे० पो० ? लोग० असंखे० भागो। अज० सव्वलोगो । एवं काययोगि-ओरालि०-णवुस०-चत्तारिक -अचक्खु०-भवसि०-ाहारि त्ति । १३५. आदेसेण णेरइय० मोह जह• खेत्तभंगो । अज० अणुक्कस्सभंगो । पढमाए खेत्तभंगो । विदियादि जाव सत्तमि त्ति मोह० जह० खेत्तभगो । अज० अणुक्कस्स भंगो। और कुछ कम बारह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। असंज्ञी जीवोंका स्पर्श एकेन्द्रियोंके समान है । तथा अनाहारी जीवोंका स्पर्श कार्मणकाययोगियोंके समान है। विशेषार्थ-संयतासंयतके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति इन गुणास्थानोंको प्राप्त होनेके पहले समयमें होती है पर उस समय मारणान्तिक समुद्घात सम्भव नहीं, अतः इन दोनों मार्गणाओंमें उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भाग कहा है और अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श इन मार्गणाओंके स्पर्शके समान ही कहा है। कृष्ण लेश्यामें उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श सातवें नरककी मुख्यतासे, नील लेश्यामें उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श पांचवें नरककी मुख्यतासे और कापोत लेश्यामें उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श तीसरे नरककी मुख्यतासे कहा है । सासादनोंमें उत्कृष्ट स्थितिवालोंका जो कुछ कम आठ वटे चौदह राजु स्पर्श बतलाया है वह देवोंकी प्रधानतासे कहा है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्पर्शनानुगम समाप्त हुआ। ६ १३४. अब जघन्य स्पर्शनानुगमका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघ निर्देशकी अपेक्षा मोहनीयकी जघन्य स्थिति. विभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवेंभाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार काययोगी औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके कहना चाहिये। विशेषार्थ-अोघसे मोहनीयकी जघन्य स्थिति क्षपकश्रेणिमें प्राप्त होती है और क्षपकोंका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है अतः यहाँ ओघसे जघन्य स्थितिवालोंका स्पर्शलोकके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है। तथा अजघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श सब लोक है यह स्पष्ट ही है। मूलमें गिनाई गई काययोगी आदि कुछ ऐसी मार्गणाएँ हैं जिनमें ओघके समान स्पर्श बन जाता है अतः उनके कथनको ओघके समान कहा। ६१३५. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवों का स्पर्श क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके समान है। पहली पृथिवीमें स्पर्श क्षेत्र के समान है । तथा दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवों के स्पर्शके समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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