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________________ ४१० 'अयधवलासहिदे कसायपाहुढे [द्विदिविहत्ती ३ ६६७९. अकसा० आहारभंगो । एवं जहाक्खादसंजदाणं । सुहुम० एवं चेक । णवरि लोसंजल० अणक्क० उक्क० छम्मासा। उवसम० सव्वपयडी० उक० ओघ । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० चउबीस अहोरत्ताणि । एवमुक्कस्सओ अंतराणुगमो समत्तो । * एत्तो जहएणयंतरं । ६८०. सुगममेदं । * मिच्छत्त-सम्मत्त-अहकसाय छण्णोकसायाणं जहएणहिदिविहत्तिअंतरं जहणणेण एगसमओ। ६८१. कुदो ? पुन्विल्लसमए जहण्णहिदि कादूण तदणंतरविदियसमए अंतरिय पुणो तदियसमए अण्णेसु जीवेसु जहण्णहिदिमवगएसु एगसमयंतरुवलंभादो । ६६७६. अकषायियोंमें आहारककाययोगियोंके समान भंग है। इसी प्रकार यथाख्यात संयतोंके जानना । सूक्ष्मसांपरायिकसंयतोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है किलोभसंज्वलनकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ठ स्थितिविभक्तिवालोंका अन्तरकाल अोधके समान है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल चौबीस दिन रात है। विशेषार्थ-अकषाय अवस्थाके रहते हुए मोहनीयकी चौबीस प्रकृतियों की सत्ता उपशान्त मोह गुणस्थानमें पाई जाती है और इसका जघन्य अन्तर एक समय तथा उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण है तथा आहारककाययोगका अन्तरकाल भी इतना ही है, अतः अकषायी जीवोंके कथनको आहारककाययोगियोंके समान कहा। यही बात यथाख्यातसंयतोंके जानना चाहिये । सूक्ष्मसाम्परायिक संयतोंके भी यही बात घटित हो जाती है, पर क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिक संयतका उत्कृष्ट अन्तर छह महीना प्रमाण है अतः इसमें लाभकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर छह महीना प्रमाण जानना चाहिये । उपशमसम्यक्त्वका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चौबीस दिनरात है अतः इसमें सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चौबीस दिनरात कहा। शेष कथन सुगम है। __ इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तरानुगम समाप्त हुआ। * अब इसके आगे जघन्य अन्तरानुगमका अधिकार है। ६६८०. यह सूत्र सुगम है। * मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, आठ कषाय और छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है। ६६८१. शंका-जघन्य अन्तरकाल एक समय क्यों है ? समाधान-क्योंकि कुछ जीवोंने पहले समयमें जघन्य स्थिति की । तदनन्तर दूसरे समयमें अन्तराल देकर पुनः तीसरे समयमें अन्य जीव जघन्य स्थितिको प्राप्त हुए इस प्रकार जघन्य अन्तरकाल एक समय प्राप्त होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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