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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे - [हिदिविहत्ती ३ १८५. मदि०सुदअण्णाण० भुज-अवढि० ओघं । अप्पद० जह० एगसमआ, उक्क० एक्कत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि। विभंग० भुज०-अप्पद०-अवहि० सत्तमपुढविभंगो । णवरि अप्पद० एकत्तीससागरो० अंतोमुहुत्तूणाणि । आभिणि ०-सुद०-ओहि० अप्पद० जह• अंतोमु०, उक्क० छावहिसागरो० सादिरेयाणि । एवमोहिदंस०-सम्मामि०-वेदयसम्मादिहि त्ति । णवरि वेदयसम्मादिहीसु छावहिसागरोवमाणि संपुण्णाणि । मणपज० अप्पद० ज० अंतोमुहुचं, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा । एवं संजदपरिहार०-संजदासजदा त्ति । समय कोई भी एक कषाय पाई जा सकती है अतः चारों कषायोंमें भुजगार स्थितिका काल ओघके समान कहा। एक कषायका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है अतः शेष कालकी औदारिक मिश्रकाययोगके साथ समानता घटित हो जाती है। शेष कथन सुगम है। $ १८५. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर है। विभंगज्ञानी जीवोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल सातवीं पृथिवीके नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि इनके अल्पतर स्थितिविभक्तिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त कम इकतीस सागर है। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंके अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें पूरे छयासठ सागर होते हैं। मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण है। इसी प्रकार संयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंके जानना चाहिये । विशेषार्थ प्रारम्भके दो अज्ञानोंके रहते हुए अधिकसे अधिक अल्पतर स्थितिविभक्ति नौवें ग्रैवेयकमें पाई जाती है, अतः मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें अल्पतर स्थितिविभक्तिका उत्कृष्टकाल साधिक इकतीस सागर कहा। यहां साधिकसे नौवें ग्रैवेयकके पिछले भवके अन्तका अन्तर्मुहूर्तकाल और अगले भवके प्रारम्भका अन्तर्मुहूर्तकाल लेना चाहिये, क्योंकि इन कालोंमें भी इस जीवके अल्पतर स्थितिका पाया जाना सम्भव है। किन्तु विभंगज्ञानमें अल्पतर स्थितिविभक्तिका काल अन्तमुहूर्त कम इकतीस सागर ही प्राप्त होता है जो कि उपरिम नौवें अवेयकमें अपर्याप्त अवस्थाके अन्तर्मुहूर्त कालको कम कर देनेसे प्राप्त होता है। अभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, अवधिदर्शन और सामान्य सम्यग्दृष्टिका उत्कृष्टकाल साधिक छयासठ सागर और वेदक सन्यक्त्वका उत्कृष्टकाल पूरा:छयासठ सागर है और इनके एक अल्पतर स्थिति ही सम्भव है अतः इनके अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल उक्त प्रमाण कहा। तथा इन सबका जघन्यकाल अन्तमुहूर्त है, अत: इनमें अल्पतर स्थितिका जघन्यकाल अन्तमुहूर्त कहा। मनःपर्ययज्ञानका जघन्यकाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि है अतः इसमें अल्पतर स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा । संयत, परिहारविशद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंके भी अल्पतर स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल उक्त प्रमाण जान लेना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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