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________________ गा० २२.] हत्ती भुजगारे कालो १०५ ६१८३. इत्थि० भुज० - अवहि० पंचिंदियतिरिक्खभंगो । अप्पद ० जह० एगसम, उक्क० पणवण्णपलिदोवमाणि देसूणाणि । एवं पुरिस० । णवरि अप्पद० जह० एगसमओ, उक्क० सागरोवमसदं तीहि पलिदोवमेहि अंतोमुहुत्तन्भहिएहि सादिरेयं । णवुंस० भुज० - वहि० ओघं । अप्पद० ज० एगसमश्र, उक्क० तेत्तीस सागरोमाणि देणाणि । अवगद ० अप्पद० जह० एगसमओ, उक्क० तोहुतं । एवं अकसाय०-मुहुमसांपरा ० - जहाक्खाद० वत्तव्वं । $ १८४. चत्तारिकसाय० ओरालियमिस्सभंगो | णवरि भुज० ओघं । है, क्योंकि एक स्थितिका तीन समय तक बन्ध होना असंभव नहीं है, क्योंकि एक स्थितिका उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण पाया जाता है । परन्तु इसमें भुजगार और अल्पतर स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल दो समय ही प्राप्त होता है, क्योंकि इसमें श्रद्धाक्षय और संक्लेशक्षय ये दो अवस्थाएं ही सम्भव हैं । अतएव इनमें भुजगार और अल्पतरका अधिक अधिक दो समय काल ही प्राप्त होगा । शेष कथन सुगम है । ९१८३. स्त्रीवेद में भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम पचवन पल्य है । इसी प्रकार पुरुषवेद में जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त और तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठ सागर है । नपुंसकवेदमें भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल ओघ के समान है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एकसमय और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। अपगतवेदी जीवोंके अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवों के कहना चाहिए । विशेषार्थ-देवीकी उत्कृष्ट स्थिति पचवन पल्य है । अब यदि कोई जीव इस आसा देवी हुआ और उसने अन्तर्मुहूर्त के बाद सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया और जीवन भर सम्यग्दृष्टि रहा तो उसके अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल कुछ कम पचवन पल्यप्रमाण प्राप्त होता है । ओघसे अल्पतर स्थितिका जो उत्कृष्टकाल कहा वह पुरुषवेदकी अपेक्षा ही घटित होता है, अतः पुरुषवेदमें अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त और तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठसागर कहा । नपुंसक वेद में अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल सातवें नरककी अपेक्षा प्राप्त होगा, अतः इसमें अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल कुछ कम तेतीस सागर कहा । अपगतवेद में अल्पतर स्थिति ही पाई जाती और मोहनीय सत्कर्मवाले अपगतवेदका जघन्यकाल एक समय तथा उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है, अतः इसमें अल्पतर स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कहा । अकायी, सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवों की स्थिति अपगतवेदी जीवोंके समान है अतः इनके भी अल्पतर स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल उक्त प्रमाण जानना । शेष कथन सुगम है। १८४. क्रोधादि चार कषायवाले जीवोंके औदारिक मिश्रकाययोगी जीवोंके समान जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके भुजगार स्थितिविभक्तिका काल ओघ के समान है । विशेषार्थ - भुजगार स्थितिके चार समय अपर्याप्त अवस्था में प्राप्त होते हैं और उस १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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