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________________ जयधवलास हिदे कसा पाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ I $ १८२. पंचमण० - पंचवचि ० – वेड व्विय ० -- वेडव्वियमिस्स० मणुसअपज्जत्तभंगो । कायजोगि० भुज० अवद्वि० ओघं । अप्पद० ज० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । ओरालि० भुज० - अवट्ठि ० मणुसअपजतभंगो | अप्पद० जह० एगसमओ, उक्क० वावीसवस्ससहस्साणि देणाणि । आहार० अप्पद० जह० एसमत्रो, उक्क० अंतोमु० । आहारमिस्स० अप्पद० जहण्णुक्क • अंतोमु० । कम्मइय० भुज० ज० एगसमओ, उक्क० वे समया । एवमष्पद० । अवडि० जह० एगसमओ, उक्क० तिण्णि समया । २०४ विग्रहति में औदारिकमिश्रकाययोग पाया नहीं जाता, अतः इस योगमें भुजगार स्थितिका उत्कृष्ट काल तीन समय कहा जो भव ग्रहण अद्धाक्षय और संक्लेशक्षयके कारण प्राप्त होता है । १८२. पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान जानना चाहिये । काययोगी जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है । तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । औदारिक काय - योगी जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल मनुष्य अपर्याप्तकों के समान है । तथा अल्पतर स्थितिविभक्तका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है । आहारक काययोगी जीवोंके अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । आहारक मिश्रकाययोगी जीवोंके अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । कार्मणकाययोगी जीवोंके भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है । इसी प्रकार अल्पतर स्थितिविभक्तिका काल जानना चाहिये। तथा अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय 1 विशेषार्थ-पांचों मनोयोग, पांचों वचनयोग, वैक्रियिककाययोग और वैक्रियिकमिश्रकाययोग में भुजगार स्थितिविभक्तिका श्रद्धाक्षय और संक्लेशक्षयसे दो समय ही उत्कृष्टकाल प्राप्त होता है तथा अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त ही प्राप्त होता है, क्योंकि इन योगों का इससे अधिक उत्कृष्टकाल नहीं पाया जाता, अतः इनमें भुजगार आदि स्थितियोंके कालको लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंके समान कहा । काययोगमें सब काययोगों का अन्तर्भाव हो जाता है और भुजगार स्थितिका उत्कृष्टकाल चार समय काययोग में ही बनता है अतः इसमें भुजगार और अवस्थित स्थिति कालको ओघके समान कहा । तथा सामान्य काययोगका उत्कृष्टकाल तो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । पर वह एकेन्द्रियके ही पाया जाता है और एकेन्द्रियके अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा, अतः काययोगमें भी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल उक्त प्रमाण जानना । औदारिककाययोगका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कम बाईस हजार वर्ष है, अतः इसमें अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल उक्त प्रमाण कहा । आहारककाययोग और आहारक मिश्रकाययोग में अल्पतर स्थितिविभक्ति ही होती है अतः इनका जो जघन्य और उत्कृष्टकाल है तत्प्रमाण ही इनमें अल्पतर स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल जानना चाहिये । कार्मणकाययोगका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल तीन समय है, अतः इसमें अवस्थिति स्थितिविभक्तिका तो जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल तीन समय बन जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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