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________________ गा.२२] . द्विदिविहत्तीए भुजगारे कालो १०३ विगलिंदियभंगो । अप्पद० मणुसअपज्जत्तभंगो । १८१. पंचिं०-पंचिं०पज० भुज०-अवहि. पंचिं०तिरिक्वभंगो। अप्पद० मूलोघं । तस-तसपज्ज० भुज०-अवहि-अप्पद० मूलोघं । तसअपज्ज० भुज० ओघं । अप्पद०-अवहि० जह० एगसमो, उक्क० अंतोमु० । एवमोरालियमिस्स० वत्तव्वं । णवरि भुज० उक्क० तिण्णि समया। और उत्कृष्टकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। विकलेन्द्रिय अपर्याप्तक जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल विकलेन्द्रियोंके समान है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका काल मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान है। विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंमें भी अद्धाक्षय और संलशक्षयसे भुजगारके दो समय प्राप्त होते हैं अतः इनमें भुजगार स्थितिका उत्कृष्ट काल भी मनुष्योंके समान कहा। तथा एकेन्द्रियके निरन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक अल्पतर स्थितिका होना सम्भव है, क्योंकि जिस एकेन्द्रियके संज्ञी पंचेन्द्रियकी स्थितिका सत्त्व है वह उसे पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक घटाता रहता है । अतः एकेन्द्रियोंमें अल्पतर स्थितिका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा। बादरएकेन्द्रिय, सूक्ष्मएकेन्द्रिय तथा पाँचों स्थावरकाय और उनके बादर और सूक्ष्म जीवोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति पल्यके असंख्यातवें भागसे अधिक है, अतः इनमें भी एकेन्द्रियोंके समान काल बन जाता है। किन्तु इन सबके पर्याप्त और अपर्याप्त भेदोंका काल कम है अतः इनमें अल्पतर स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा। इसी प्रकार विकलत्रय पर्याप्त और विकलत्रय अपर्याप्त जीवोंके उत्कृष्ट काल का विचार करके अल्पतर स्थितिका उत्कृष्ट काल जानना । शेष कथन सुगम है। ६१८१. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्तक जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका काल मूलोघके समान है। त्रस और त्रस पर्याप्तक जीवोंके भुजगार, अवस्थित और अल्पतर स्थितिविभक्तिका काल मूलोघके समान है। बस अपर्याप्तकोंके भजगार स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है। तथा अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके भुजगार स्थितिविभक्तिका उत्कृष्टकाल तीन समय है । विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें सब पंचेन्द्रिय जीव आ जाते हैं। उनमें पंचेन्द्रिय तिर्यश्च भी सम्मिलित हैं अतः पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके जिस प्रकार भुजगार स्थितिका उत्कृष्ट काल तीन समय घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार इनके भी जानना चाहिए। तथा ओघसे अल्पतर स्थितिका जो उत्कृष्ट काल बतलाया है वह पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंके ही प्राप्त होता है अन्यके नहीं, अतः इनके अल्पतर स्थितिका काल ओघके समान कहा । ओघसे भुजगार आदि तीनों विभक्तियोंका जो काल कहा है वह त्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंके अविकल बन जाता है, अतः इनकी प्ररूपणाको श्रोधके समान कहा । त्रस अपर्याप्तकोंका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है, अतः इनके अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कहा। जो एकेन्द्रिय या विकलत्रय पंचेन्द्रिय त्रसोंमें उत्पन्न होता है उसके भुजगार स्थितिके चार समय प्राप्त होते हैं। किन्तु इनमें भुजगारका पहला समय विग्रह गतिमें हो जाता है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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