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________________ २०६ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे [ द्विदिषहत्ती ३ मिच्छत्तादीणं जहणहिदी एगसमयकालपमाणा त्ति किण्ण परूविदं ? ण, मिच्छत्तसम्मामिच्छत्त- बारसकसायाणं सम्मत्तस्सेव सोदएण क्खवणाभावादी । ९ ३७४. संपहि लोहसंजलणस्स जहण्णहिदी बुच्चदे । तं जहा - अप्पणो बादरकिट्टीओ वेदिय तदो तदियकिहिं वेदयमाणो सुहुमसांपराइयअद्धाए संखेज्जे भागे गंतूण लोभचरिमफालिमागाएंतो मुहुमसांपराइयश्रद्धाए सेसं सगद्धाए संखेज्जदिभागं मोत्ता आगाएदि । पुणो तं चरिमफालिदव्वं घेत्तूण गुणसेटिकमेण उदयादि णिक्खिविय तदो जहाकमेण सेसगोवुच्छाओ गालिय एगहिदीए उदयगदाए एगसमयकालपमाणाए सेसाए लोभसंजणस्स जहणद्विदिविहत्ती होदि । ९ ३७५. इत्थवेदस्स एगा हिंदी एगसमयकालपमाणा जहण्णडिदिविहत्ती होदि त्ति जं भणिदं तस्स विवरण कस्सामो । तं जहा - इत्थिवेदोदएण खवगसेटिं चडिय तदो विदिय हिदी द्विदमित्थिवेदचरिमफालिं दुचरिमसमय सवेदएण घेत पुरिसवेदसरुवेण संकामिदे सवेदियचरिमसमयम्मि एगा हिदी एगसमयकालपमाणा सुद्धा चिदिता इत्थवेदस्स जहण्णहिदिविहत्ती होदि । ९ ३७६. संपहिणवुंसयवेदस्स बुच्चदे । तं जहा —णवु सयवेदोदएण जो खवगशंका-सम्यग्मिथ्यात्व आदिककी जघन्य स्थिति एक समय कालप्रमाण क्यों नहीं कही ? समाधान नहीं, क्योंकि मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और बारह कषायोंका सम्यक्त्वके समान स्वोदय से क्षपण नहीं होता, इसलिये उनकी जघन्य स्थिति एक समय कालप्रमाण नहीं कही । ९ ३७४, अब लोभसंज्वलनकी जघन्य स्थिति कहते हैं । वह इस प्रकार है - लोभसंज्वलन - वाला जीव अपनी बादर कृष्टियों का वेदन करके तदनन्तर तीसरी कृष्टिका वेदन करता हुआ सूक्ष्मसांपरायिकगुणस्थान के काल में संख्यात बहुभागप्रमाण कालका व्यतीत करके लोभकी अन्तिम फालिको ग्रहण करता हुआ सूक्ष्मसंपराय के काल में अपने कालक अर्थात् लाभकी अन्तिम फालिके कालके संख्यातवें भागप्रमाण निषेकोंको छोड़कर शेष निषेकों को ग्रहण करता है । पुनः उस अन्तिम फालिके द्रव्यको ग्रहण करके और उसे गुणश्रेणीक्रमसे उदय काल से लेकरके निक्षिप्त करके तदनन्तर यथाक्रमसे शेष गोपुच्छको गलाता है तब जाकर उदद्य प्राप्त एक स्थितिकी एक समय कालप्रमाण स्थितिके शेष रहने पर लोभसंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है । — § ३७५. अब स्त्रीवेदकी एक स्थिति एक समय कालप्रमाण जघन्य स्थितिविभक्ति होती है यह जो पहले कह आये हैं उसका विवरण करेंगे। वह इस प्रकार हैं स्त्रीवेद के उदयसे क्षपकश्रेणी पर चढ़कर तदनन्तर सवेदक जीवके द्वारा द्विचरम समय में द्वितीय स्थिति में स्थित स्त्रीवेदकी अन्तिम फालिका पुरुषवेदरूप से संक्रमण कर देने पर जब सवेद भाग के अन्तिम समय में एक समय कालप्रमाण एक स्थिति शुद्ध शेष रहती है तब स्त्रीवेद की जघन्य स्थितिविभक्ति होती है । । ३७६. अब नपुंसकवेदकी जघन्य स्थिति कहते हैं । वह इस प्रकार है - जो नपुंसक वेद के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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