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________________ ર૭ गा० २२ ] डिदिविहत्तीए उत्तरपयडिडिदिविहत्तियसरिणयासो ५२७ सोलसण्हं कसायाणमुक्कस्सहिदिविहत्ती विसेसाहिया । १८७६. केत्तिएण, बंधावलियाए । * सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सहिदिविहत्ती विसेसाहिया ।। ८८०. केत्तियमेत्तो विसेसो त्ति ? तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ अंतोमुहुत्तूणाओ। * सम्मत्तस्स उकस्सहिदिविहत्ती विसेसाहिया । ८८१. केत्तिएण; एगदयणिसेगेण । * मिच्छत्तस्स उकस्सहिदिविहत्ती विसेसाहिया । ६८८२ के० १ अंतोमुहुनेण । ॐ सेसासु गदीसु णेदव्यो। १८८३. एदेणेदेसि मुत्ताणं देसामासियचं जाणाविद, तेण चुण्णिसुत्तसूचिदाणमत्थाणमुच्चारणमस्सिदूण परूवणं कस्सामो । * शेष नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिसे सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। ६८७६.शंका-कितनी अधिक है ? समाधान-एक बन्धावलि कालप्रमाण अधिक है । * सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिसे सम्यग्मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। ६८८०.शंका-विशेषका प्रमाण कितना है। समाधान-विशेषका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त कम तीस कोडाकोड़ी सागर है । * सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिसे सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। १८८१. शंका-कितनी अधिक है ? समाधान-एक उदयनिषेकप्रमाण अधिक है। * सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिसे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। ६८८२.शंका-कितनी अधिक है ? . समाधान-अन्तर्मुहूर्त अधिक है। * इसी प्रकार शेष गतियों में जानना चाहिये । १८८३. पूर्वोक्त सभी सूत्र देशामर्षक हैं यह इस सूत्रसे जता दिया है, अत: चूर्णिसूत्रसे सूचित होनेवाले अोंका उच्चारणाका आश्रय लेकर कथन करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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