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________________ ५२८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ हिदिविहत्ती ३ १८८४. हिदिअप्पाबहुअं दुविहं-जहण्णमुक्कस्मं च । उक्कस्सए पयदं । दुविहो णि देसो-ओघेण आदेसेण य ? तत्थ ओघेण सव्वत्थोवा णवणोक० उक्क- . स्साहिदिविहत्ती'। सोलसक० उक्क विहत्ती विसे० । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० विसेसा० । मिच्छत्त० उक्क० विसेसा० । एवं सत्तसु पुढवीसु । तिरिक्खगइच उक्क०-मणुसतिय०देवगई०-भवणादि जाच सहस्सार०-पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज०-तस-तसपज्ज०-पंचमण०पंचवचि०- कायजोगि०-ओरालि०-वेउवि०-तिण्णिवेद-चत्तारिक०-असंजद०-चक्खु०अचक्खु०-पंचले०-भवसिद्धि०-सण्णि आहारए ति । १८८५ पंचि० तिरि० अपज्ज. सव्वयोवा सोलसक०-णवणोक० उक्क० हिदि विहत्ती। सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० हिदिविहत्ती विस०। मिच्छत्तक० हिदिविहत्ती विसे० । एवं मणुसअपज्ज०-बादरेइंदिय अपज्ज-सुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्त-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदिय अपज्ज० बादरपुढवि०अपज्ज०-सुहुमपुढवि०-पज्जत्तापज्जत्त-बादरआउ० अपज्ज०-सुहुमआउ०पज्जत्तापज्जत्त - तेउ० बादरमुहुमपज्जत्तापज्जत्त - वाउ० बादरमुहुम ८८४. स्थिति अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । पहले यहां उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे अोघनिर्देशकी अपेक्षा नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है। सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, तिर्यंचगतिमें सामान्य, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त और योनिमती तिथंच, सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, मनुष्यनी, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्त्रार स्वर्गतकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षदर्शनवाले, कृष्ण आदि पांच लेश्यावाले, भव्य, संज्ञी, और आहारक जीवोंके जानना चाहिये । ८८५ पंचेन्द्रिय तियेच अपर्याप्तकोंमें सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है। इससे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तक, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तक, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्तक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्तक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्तक, बादर जलकायिक अपर्याप्तक, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्तक, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्तक, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, निगोदवनस्पति, बादर १. ता० प्रतौ 'विहत्ती [ विसेसाहिया ] । सोलसक०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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