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________________ ५३५ गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिनिदिविहत्तियअप्पाबहुओं अप्पणो पढयपुढविवक्खाणसमाणं ।। 8 ८६७. तिरिक्खगईए सव्वत्थोवा सम्मत्त०जह• हिदिविहत्ती । जत्तिया हिदिविहत्ती तत्तिया चेव सम्मामि । अणंताणु० चउक्क० ज० हिदि० तत्तिया चेव । जाहिदिविह० संखे०गुणा णिसेगसमयग्गहणादो । पुरिस० ज० हिदिवि० असंखेजगुणा । इस्थिजह• हिदिवि० विसे० । हस्सरदि० ज० विह० विसेसा० । अरदिसोगज. वि. विसे। णवंस० ज० हिदिविह० विसे । भय-दुगुछ० ज०वि०विसे । बारसक० जह० विहत्ती विसेसा० । कारणमेत्थ जहा सत्तमपुढवीए उत्तं तहा वत्तव्वं । मिच्छत्तजह० हिदिवि. विसे । एत्थ उच्चारणाइरियस्स सत्तणोकसायबंधगद्धाओ पुव्वं व वत्तव्वाश्रो; चदुगदीसु तासि विसेसाभावादो। वक्खाणाइरियाणमेत्थ सत्तणोकसायद्धप्पाबहुअमुच्चारणद्धप्पाबहुएण सरिसंतेण तिरिक्खगईए णत्थि दोण्हमप्पाबहुआणं भेदो । एवं पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिं० तिरि०पज्जत्ताणं । णवरि णस० जहण्णहिदीए उवरि भय-दुगुछाजहण्णहिदी संखेगणा। कुदो ? णवुसयवेदजहण्णहिदी णाम सागरोवमचत्तारि सत्तभागा पलिदो० असंखे०भागेण पडिवक्खबंधगद्धाए च ऊणा; पंचिदिएमु उप्पन्जिय बंधाभावेण एइंदियहिदिसंतस्सव तत्थंतोमुहुत्तकालुवलंभादो । भय क्योंकि उससे इसमें कोई भेद नहीं है । चिरन्तनाचार्यका व्याख्यान भी यहां अपने पहली पृथिवीके व्याख्यानके समान है। १८६७.तियंचगतिमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है। सम्यक्त्वकी जितनी स्थितिविभक्ति है उतनी ही सम्यग्मिथ्यात्वकी और उतनी ही अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थिति है। पर यह स्थिति विभक्ति संख्यातगुणी है, क्योंकि इसमें निषेकों के समयोंका ग्रहण किया है। इससे पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति असंख्यातगुणी है। इससे स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे हास्य और रतिकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है । इससे अरति और शोककी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे बारह कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इसका कारण जिस प्रकार सातवीं पृथिवीमें कह आये हैं उस प्रकार यहां कहना चाहिये। बारह कषायोंकी जघन्य स्थितिसे मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। यहां उच्चारणाचार्यके द्वारा कहे गये सात नोकषायोंके बन्धकालोंका पहलेके समान व्याख्यान करना चाहिये, क्योंकि चारों गतियोंमें उनके कथनमें कोई विशेषता नहीं है। परन्तु यहां तिर्यंचगतिमें व्याख्यानाचार्यके द्वारा कहा गया सात नोकषायों सम्बन्धी अल्पबहुत्व उच्चारणाचायके अल्पबहुत्वके समान है, अतः तिर्यंचगतिमें दोनों अल्पबहुत्वोंमें कोई भेद नहीं है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तियेच और पंचेन्द्रिय तिथेच पर्याप्तकोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिके ऊपर भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति संख्यातगुणी है; क्योंकि पंचेन्द्रिय तिर्यंच और पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तकोंमें नपुसकवेदकी जघन्य स्थिति एक सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमका असंख्यातवां भाग और प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धकालसे कम चार भागप्रमाण होती है, क्योंकि कोई एक एकेन्द्रिय पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ और उसने नपुसकवेदका बन्ध नहीं किया तो उसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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