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________________ गा० २२) हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियसरिणयासो ४३५ ७१६. संपहि विदियपयारेण सण्णियासपरूवणा कीरदे । तं जहा–वेदगपाओग्गमिच्छादिहिणा बद्धमिच्छत्त क्कस्सहिदिणा सव्वजहण्णपडिहग्गकालमच्छिय सम्मत्त घेतण मिच्छत्तहिदिसंकमे सम्मत्तस्सुक्कस्सहिदि कादूण सबजहण्णसम्मत्तकालमच्छिदेण मिच्छ गंतूण सव्वजहण्णमिच्छत्तकालेणुक्कस्ससंकिलेसं पूरेदृण मिच्छत्तु कस्सहिदीए पबद्धाए सम्मत्तुक्कस्सहिदी अंतोमुहुत्त णा होदि । तदो अण्णेण आने चाहिये । किन्तु अन्तिम उद्वेलनाकाण्डकके घात होनेपर अनेक स्थितिविकल्प नहीं प्राप्त होते, क्योंकि जघन्य उद्वेलनाकाण्डकका प्रमाण सब जीवोंके समान है, अत: उसका घात होनेपर सबके एक ही स्थिति प्राप्त होती है। यथा नाना जीव सम्यक्त्वकी सत्त्व स्थिति उत्कीरणाकाल उद्वेलनाकाण्डक उद्वेलनासे प्राप्त सम्यक्त्वकी स्थिति १ ला cl २७ ५ c ccx 1 GMS oc 66666666 oc ac cccc एक समय कम उदयावलिप्रमाण नि० यहाँ उत्कीरणा कालप्रमाण स्थितियाँ तो अधःस्थिति गलनाके द्वारा गलती गई हैं, अतः उनकी अपेक्षा सन्निकर्ष विकल्प बन जाते हैं पर उद्वेलनाकाण्डक प्रमाण स्थितियोंका घात एक साथ हुआ है और सम्यक्त्वकी सत्त्व स्थितियोंमें विभिन्नता न होनेसे उद्वेलनाकाण्डकघातसे नाना जीवोंके स्थितियाँ भी एकसी ही प्राप्त हुई, अतः उद्वेलनाकाण्डक १६ प्रमाण स्थितियाँ सन्निकर्षसे परे हैं। तथा अन्तमें प्रत्येक जीवके जो एक कम उदयावलिप्रमाण निषेक बचे हैं वे अधःस्थितिगलनाके द्वारा गलते जाते हैं और इस प्रकार उतने सन्निकर्षविकल्प और प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रकार उद्वेलनासे कुल सन्निकर्षविकल्प २५१ - १६%२३५ प्राप्त हुए । ६७१६. अब दूसरे प्रकारसे सन्निकर्षकी प्ररूपणा करते हैं, जो इस प्रकार है-जिसने मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया है ऐसा कोई एक वेदकसम्यक्त्वके योग्य मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वसे च्युत होनेके सबसे जघन्य काल तक मिथ्यात्वमें रहा पुनः वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण करके पहले समयमें उसने मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रम करके सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थिति की और वहां सम्यक्त्वके सबसे जघन्य काल तक रह कर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। तदनन्तर मिथ्यात्वके सबसे जघन्य कालके द्वारा उत्कृष्ट संक्लेशकी पूर्ति करके उसके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्ध होने पर उस समय सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त कम होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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