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________________ जयपषलासहिदे कसायपाहुडे . . [हिदिविहत्ती ३ ३२३. आणदादि जाव अवराइद त्ति असंखे०भागहाणी० के० १ सव्वद्धा । संखे०भागहाणी. जह० एगसमओ, उक्क० श्रावलि. असंख०भागो। एवं संजदासंजद० । सव असंख० भागहाणी० के०? सव्वद्धा । संखजभागहाणी ज० एगस०, उक्क० संखेजा समया । एवं परिहार० ।। ३२४. सव्वएइंदिएसु असंखे भागवड्डी-हाणी-अवहि० तिरिक्वोघं । सेसपदवि० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे०भागो । एवं पुढवि०-बादरपुढवि०-बादरपुढविअपज्ज०-सुहुमपुढवि०-सुहुमपुढविपज्जत्तापञ्जत्त-आउ०-बादरआउ०बादराउअपज्ज०-सुहुमाउ०-सुहुमाउपजत्तापज्जत्त-तेउ०-[-बादरतेउ०-] बादरतेउअपज्ज०-सुहुमतेउ०-सुहुमतेउपजत्तापज्जत-वाउ०-बादरवाउ०-बादरवाउअपज्ज०-मुहुमवाउ०-मुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्त-वणप्फदि०-बादरवणप्फदि-बादरवणप्फदिपज्जत्तापज्जत्तसुहुमवणप्फदि० - सुहुमवणप्फदिपज्जत्तापज्जत्त - बादरवणप्फदिपत्तेयसरीर० - तस्सेव अपज्जत्ते ति। $३२३. आनत कल्पसे लेकर अपराजित कल्पतकके देवोंमें असंख्यातभागहानिवाले जीवोंका कितना काल है ? सब काल है। संख्यातभागहानिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार संयतासंयत जीवोंके जानना चाहिये । सर्वार्थ सिद्धि में असंख्यातभागहानिवाले जीवोंका कितना काल है ? सर्व काल है। तथा संख्यातभागहानिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल संख्यात समय है। इसी प्रकार परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके जानना चाहिये। विशेषार्थ-आनत कल्पसे लेकर अपराजित तकके प्रत्येक स्थान के देवोंका प्रमाण असंख्यात है अतः यहाँ संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जाता है । पर सर्वार्थसिद्धिमें देवोंका तथा परिहारविशुद्धि संयतोंका प्रमाण संख्यात है, अतः यहाँ संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल संख्यात समय ही प्राप्त होता है । शेष कथन सुगम है। . ३२४. सभी एकेन्द्रियोंमें असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित विभक्तिवाले जीवोंका काल सामान्य तिर्यंचोंके समान है। तथा शेष पदवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, वनस्थितिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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