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________________ गा० २२ ] . . हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिष्टिदिश्रद्धाच्छेदो १६६ * एवं संधासु गर्दासु जयव्वों । ___३६५. जहाँ श्रोधणं अद्धाछेदों परूविदो तहा सन्चासु गदीसु णेदव्यो ति । एवं जइवसहाइरिएण संवासु मांगणासु चिदमुक्कस्सहिंदिश्रद्धच्छेदमुच्चारणाइरिएणं मंदबुद्धिजणाणुग्गहमेसुद्द से परूविदं वत्तइस्सामो ३६६. तं जहा–सत्तण्डं पुढवीणं तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचितिरि०पज्ज०-पंचिंतिरिक्खजोणिणी-मणुसतिय०-देव-भवणादि जाव सहस्सार०-पंचिंदियपंचिं०पज०-तस-तसपज्जा-पंचमण०-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालिय० - वेउब्विय०तिण्णिवेद०-चत्तारिकसाय-मदि-सुदअण्णाण-विहंग०-असंजद०-चक्खु०-अचक्खु०पंचलेस्सा०-भवसिद्धि० अभवसिद्धि-मिच्छाइ०-सण्णि-आहारीणमोघभंगो । ___६३६७. पंचिंदियतिरिक्खअपजत्तएसु मिच्छत्त-सम्पत्त-सम्पामिच्छत्ताणमुक्कस्सआवलिके पश्चात् इनमें कषायको उत्कृष्ट स्थितिकै संक्रमित होने में कोई बाधा नहीं आती है । यहां इतना और विशेष जानना चाहिए कि बन्धावलिके बाद यद्यपि कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका नौ नोंकपायरूपसे संक्रमण तो होता है पर उदयावलिप्रमाण निषेकोंको छोड़कर ऊपरके निषेकोंमें स्थित कमपरमाणुका ही संक्रमण होता है । इस प्रकार बन्धावलि और उदयावलि इन दो अवलिप्रमाण निषेक असंक्रमित ही रहते हैं । इसलिये संक्रमणकी अपेक्षा नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति दो आवलिकर्म चालीस कौड़ाकोड़ी सागरप्रमाणं और सत्त्वकी अपेक्षा एक औवलिकम चालीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण पाई जाती है, क्योंकि जिस समय कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रमण होता है उस समय उदयावलिप्रमाण निषकों को छोड़कर शेषका होता है। पर नौ नोंकषायोंकी सत्ता संक्रमणके पहले भी थी अंतः पूर्वसत्तांके उदयावलि प्रमाण निषेकोंको मिला देने पर एक आवंलिकम चालीस कोडाकोड़ी सागरप्रमाण स्थिति प्राप्त हो जाती है । * इसी प्रकार सभी गतियोंमें जानना चाहिये। ६३६५. जिस प्रकार ओघसे मोहनीयकी अट्ठाईस प्रकृतियोंका अद्धाच्छेद कहा है उसी प्रकार सभी गतियोंमें जानना चाहिये । इस प्रकार यतिवृषभ आचार्यने जो सम्पूर्ण मार्गणाओंमें उत्कृष्ट स्थितिका प्रमाण सूचित किया है जिसका कि प्ररूपण उच्चारणाचार्यने मन्दबुद्धिजनोंके अनुग्रहके लिये इसी प्रकरणमें किया है उसे बंताते हैं । ६३६६. वह इस प्रकार है-सातों नरक, सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तियचयोनिमती; सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, मनुष्यनी, सामान्य देच, भवनवासियोंसे लेकर सहस्त्रार स्वर्गतकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी; श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी; असंयत; चर्बुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, कृष्णादि पांच लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके ओधके समान भंग है। अर्थात् ओघसे जिस प्रकार मोहनीयकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी स्थितिका कथन कर आये हैं उसी प्रकार इन पूर्वोक्त मार्गणाओंमें भी जानना चाहिये। . ६.३६७. पंचेन्द्रिय तिर्यंचे अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व कर्मकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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