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________________ २७१ v-rrrrwaWwriNPN गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिसामित्त २७९ $ ४८५. सुगर्म । * जहण्णण एगसमनो। ४८६. कुदो ? कसायाणमेगसमयमावलियमेत्तकालं वा उक्कस्सहिदि बंधिय पडिहग्गपढमसमए पडिहग्गावलियाए वा इच्छिदणोकसायं बंधाविय गलिदसेसकसायुक्कस्सहिदीए तत्थ संकमिदाए एदासिं चदुण्डं पयडीणमुक्कस्सहिदिकालस्स एगसमयदंसणादो। ___ * उक्कस्सेण आवलिया। ४८७. कुदो ? पडिहग्गकाले चेव एदासिं चदुण्हं पयडीणं बंधणियमादो। उकस्सहिदिबंधकाले एदाओ किण्ण बझति ? अचसुहत्ताभावादो साहावियादो वा। . अहियो कालो किण्ण लब्भदि ? ण, बंधगद्धाचरिमावलियाए बद्धसमयपबद्धाणं चेव तत्थुक्कस्सत्तुवलंभादो। ६४८५ यह सूत्र सरल है। * जघन्य काल एक समय है। $ ४८६. शंका-इनका जघन्य काल एक समय क्यों है ? समाधान_क्योंकि जिसने कषायोंकी एक समय तक अथवा एक आवलीप्रमाण काल तक उत्कृष्ट स्थितिको बांधा है उसके प्रतिभग्न होनेके पहले समयमें अथवा प्रतिभग्न होनेके आवली प्रमाण कालके भीतर इच्छित नोकषायका बन्ध कराकर अनन्तर गलकर शेष रही कषायकी उत्कृष्ट स्थितिके इच्छित नोकषायमें संक्रमण कराने पर इन चारों प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका काल एक समय देखा जाता है। * उत्कृष्ट काल एक आवली है । ६४८७.शंका-उत्कृष्ट काल एक आवली क्यों है ? समाधान-क्योंकि प्रतिभग्न कालके भीतर ही इन चार प्रकृतियोंके बन्धका नियम है। शंका-उत्कृष्ट स्थितिके बन्धकालमें ये चारों प्रकृतियां क्यों नहीं बंधती हैं ? समाधान-क्योंकि ये प्रकृतियां अत्यन्त अशुभ नहीं हैं इसलिये उस कालमें इनका बन्ध नहीं होता। अथवा उस समय नहीं बंधनेका इनका स्वभाव है। शंका-उत्कृष्ट काल अधिक क्यों नहीं पाया जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि बन्धककालकी अन्तिम श्रावलीमें बंधे हुए समयप्रबंद्धोंकी ही इन चारों प्रकृतियोंमें संक्रमण होनेके कालमें उत्कृष्टता पाई जाती है, इसलिये इनकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल एक आवलीसे अधिक नहीं हो सकता। विशेषार्थ-स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रतिकी उत्कृष्ट स्थिति एक आवलीकम चालीस कोड़ाकोड़ी सागर है और इनका बन्ध कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिबन्धके समय होता नहीं, किन्तु जिस समय उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणामोंसे जीव निवृत्त होने लगता है उसी समयसे होता है, अतः इनकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अवस्थान काल एक समय और उत्कृष्ट For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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