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________________ २७२ mmmmmmmmmmm जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ * एवं सव्वासु गदीसु । ४८८. जहा ओघम्मि उक्कस्सडिदिकालपरूवणा कदा तहा सव्वासिं गदीणमोघम्मि परूवणा कायव्वा ण आदेसम्मि; तत्थ ओघादो विसेसदसणादो । ४८९. एवं चुण्णिमुत्तपरूवणं काऊण संपहि एदेण सूचिदत्थजाणावण?मुच्चारणाइरियवक्खाणमोघादो चेव भणिस्सामो । ४९०. कालाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य। तत्थ ओघेण मिच्छत्त-सोलकसायाणमुक्क० जह० एगसमो, उक्क० अंतोमुहुत्त । पंचणोकसायाणमुक्क० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोम० । कुदो ? सोलसकसाय-णवु'स०-अरदिसोग-भय-दुगुंछाणं सरिसं संकिलेसं पूरेदूण उक्कस्सहिदिं बंधदि । ताधे कसायाणअवस्थान काल एक श्रावलि प्राप्त होता है, क्योंकि जो एक समय तक कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति बांधकर और दूसरे समयसे इन स्त्रीवेद आदिका बन्ध करने लगता है उसके एक आवलीके पश्चात् एक आवलिकम कषायकी उत्कृष्ट स्थिति स्त्रीवेद आदि रूपसे संक्रमित हो जाती है । तथा जो एक आवलि या एक आवलिसे अधिक काल तक कषायकी उत्कृष्ट स्थिति बांध कर पश्चात् स्त्रीवेद आदिका बंध करने लगता है उसके एक आवलिके पश्चात् एक आवलि काल तक ही एक आवलिकम कषायकी उत्कृष्ट स्थिति स्त्रीवेद आदि रूपसे संक्रमित होती है। इसके पश्चात् बांधी हुई कषायकी उत्कृष्ट स्थिति का स्त्रीवेद आदिमें संक्रमण होने पर भी उसमें एक एक समय उत्तरोत्तर कम होता जाता है, अतः इनकी उत्कृष्ट स्थिति जघन्य रूपसे एक समय तक और उत्कृष्ट रूपसे एक आवली कालतक पाई जाती है। * इसी प्रकार सभी गतियोंमें जानना चाहिये । ६४८८ जिस प्रकार ओघमें उत्कृष्ट स्थितिके कालकी प्ररूपणा की है उसी प्रकार सभी गतियों की प्ररूपणा ओघमें ही करनी चाहिये आदेशमें नहीं, क्योंकि आदेशमें ओघकी अपेक्षा विशेषता देखी जाती है। विशेषार्थ-यहां चूर्णिसूत्रकारने सब गतियोंमें काल सम्बन्धी अोघप्ररूपणाको स्वीकार किया है। इसका यह तात्पर्य है कि कालसम्बन्धी उपर्युक्त ओघप्ररूपणा चारों गतियों में बन जाती है, अतः चारों गतियोंमें कालसम्बन्धी प्ररूपणा ओघप्ररूपणा ही है। आदेशप्ररूपणा तो वह है जिसमें ओघसे कुछ विशेषता हो, किन्तु चारों गतियोंमें कालसम्बन्धी प्ररूपणा ओघप्ररूपणासे कुछ भी विशेषता नहीं रखती, अतः चारों गतियोंमें कालसम्बन्धी प्ररूपणा भी ओघ प्ररूपणा ही है यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है। ४८६, इस प्रकार चूर्णिसूत्रोंका कथन करके अब इनके द्वारा सूचित अर्थका ज्ञान करानेके लिये उच्चारणाचार्यके व्याख्यानका ओघकी अपेक्षा ही कथन करते हैं। ६४६०. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है, ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश ! उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा इन पांच नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि समान संक्लेशको प्राप्त होकर जीव सोलह कषायोंकी तथा नपुंसकवेद, अरति, शोक, M Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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