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________________ गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियकालो ९६५५. कुदो ? एदेसिं जहण्णणिसेयद्विदीए दुसमयकालाए एगसमयकालाए वा पयदा विदियसमए चेव णिम्मूलविणासुवलंभादो । * उकस्सेण संखेज्जा समया । ९ ६५६. कुदो ? णाणाजीवाणमणुसमयं जहण्णहिदि पडिवज्जंताणं संखेन्नमसपज्जएहिं तो श्रागमुवलंभादो । ० * सम्मामिच्छत्त · अणंताणुबंधीणं चउक्कस्स जहणडिदिविहत्तिएहि ururजीवेहि कालो केवडिओ ? १६५७. सुगममेदं पुच्छासुत्तं । * जहणणेण एगसमओ । ६५८. कुदो ? एग़णिसेगहिदीए दुसमयकालाए विदिसमए परसरूवेण गमणुभादो । अगमणेण सा जहण्णहिदी; दुवादिणिसेयाणं जहण्णत्तविरोहादो । * उक्कस्सेण आवलिया असंखेज्जदिभागो । ६५६. कुदो ? सम्मामिच्छत्तमुव्वेल्लंताणमणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोएंताणं च ३६५ ९ ६५५. शंका- उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिवालोंका जघन्य काल एक समय क्यों है ? समाधान - क्योकि इन प्रकृतियोंके जघन्य निषेककी स्थिति चाहे दो समय कालवाली हो या चाहे एक समय कालवाली हो तथापि दूसरे समयमें ही उसका निर्मूल विनाश पाया जाता है, अतः इनका जघन्य क ल एक समय कहा है । * उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । ९ ६५६. शंका - उत्कृष्ट कालसंख्यात समय क्यों हैं ? समाधान- क्योंकि प्रत्येक समयमें जघन्य स्थितिको प्राप्त होनेवाले नानाजीवोंका पर्याप्त मनुष्यों से आगमन पाया जाता है, जिनकी संख्या संख्यात है । * सम्यग्मिथ्मात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले नाना जीवका काल कितना है ? ६ ६५७. यह पृच्छ| सूत्र सरल है । * जघन्य काल एक समय है । ६५८ शंका - जघन्य काल एक समय क्यों है ? समाधान- क्योंकि इनकी दो समय काल प्रमाण एक निषेकस्थितिका दूसरे समय में पररूपसे संक्रमण पाया जाता है । जब तक पररूपसे संक्रमण नहीं होता है तब तक वह जघन्य स्थिति नहीं है, क्योंकि दो आदि निषेकोंको जघन्य माननेमें विरोध आता है I * उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है । ९ ६५६. शंका - उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण क्यों है ? समाधान - क्योंकि सम्यग्मिध्यात्वकी उद्वेलना करनेवाले और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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