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________________ ३६४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ संजदे ति । [ असण्णि० एइंदियभंगो।] एवमुक्कस्सओ कालाणुगमो समत्तो । ॐ जहण्णए पयदं । मिच्छत्त-सम्मत्त-बारसकसाय-तिवेदाणं जहणणहिदिविहत्तिएहि णाणाजीवेहि कालो केवडिअो ? ६६५४. णाणाजीवेहि जहण्णहिदिविहत्तिएहि छट्ठीए अत्थे तइया दहव्वा । अहवा कत्तारम्मि तइया घेत्तव्वा ; जहण्णहिदिविहत्तिएहि केवडिओ कालो लद्धो त्ति पदसंबंधादो । सेसं सुगमं । ॐ जहरणेण एगसमभो। जानना चाहिये। विशेषार्थ आनतादि चार कल्पोंमें यद्यपि तिथंच भी मर कर उत्पन्न होते हैं किन्तु उनके उत्कृष्ट स्थिति नहीं पाई जाती, अतः जो द्रब्यलिंगी मनुष्य मर कर आनतादिकमें उत्पन्न होते हैं उन्हींके पहले समयमें उत्कृष्ट स्थिति पाई जाती है, पर लगातार उत्पन्न होनेवाले इन जीवोंका प्रमाण संख्यात ही होगा, क्योंकि ऐसे मनुष्य ही संख्यात हैं, अतः इनके सब प्रकृतियोंकी उत्कष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा। तथा अनुदिशादिकमें और क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय होता है यह स्पष्ट ही है। यदि एक साथ अनेक जीवोंने आहारककाययोग किया और उनके उत्कृष्ट स्थिति हुई तो आहारक काययोगमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है और यदि नाना मनुष्य प्रत्येक समयमें उत्कृष्ट स्थितिके साथ आहारक काययोगको प्राप्त होते रहे तो आहारककाययोगमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल संख्यात समय पाया जाता है। तथा आहारककाययोगके जघन्य और उत्कृष्ट कालकी अपेक्षा इसमें अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है । अपगतवेदी, अकषायी, सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत, यथाख्यातसंयत और आहारक मिश्रकाययोगी इनकी कथनीमें आहारककाययोगकी कथनीसे कोई विशेषता नहीं है अतः इनमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका काल आहारककाययोगके समान घटित कर लेना चाहिये। किन्तु आहारकमिश्रकायोगका जघन्य काल भी अन्तर्मुहूर्त है अतः इसमें सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त ही प्राप्त होगा। इसी प्रकार शेष मार्गणाओंमें भी कालका विचार कर सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्तिका काल ले आना चाहिए। इस प्रकार उत्कृष्ट कालानुगम समाप्त हुआ। * अव जघन्य कालानुगमका प्रकरण है । मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, बारह कषाय और तीनों वेदोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले नाना जीवोंका काल कितना है। ६६५४. 'णाणाजोवेहि जहण्णहिदिविहत्तिएहि इन दोनों पदोंमें जो तृतीया विभक्ति है वह षष्ठी विभक्तिके अर्थमें जानना चाहिये। अथवा कर्ता अर्थमें ततीया विभक्ति ग्रहण क चाहिये, क्योंकि 'जघन्य स्थितिविभक्तिवाले नाना जीवोंने कितना काल प्राप्त किया है। इस प्रकारका पदसम्बन्ध यहां विवक्षित है। शेष कथन सुगम है। * जघन्य काल एक समय है । महण करनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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