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________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिविदिसामित्तं २४१ सम्मत्तं पडिवण्णो सम्मत्तेण सव्वलहुअमद्धमच्छिय हिदिघादमकाऊण सम्मामिच्छत्त गदो तस्स पढमसमयसम्मामिच्छादिहिस्स उक्क विहत्ती । अणाहारीणं कम्मइयभंगो । एवमुक्कस्ससामित्तं समत् । * एत्तो जहण्णय । ४२४. जहण्णसामि भणामि त्ति सिस्ससंभालणं कदमेदेण सुत्तेण । तस्स दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य चेदि । तत्थ ओघेण परूवण (जइवसहाइरिओ उत्तरसुत्र भणदि मिच्छत्तस्म जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ? $ ४२५. सुगममेदं * मणुसस्स वा मणुसिणीए वा खविज्जमाणयमावलिय पविहं जाधे दुसमयकालहिदिग सेसताधे ।। ___ ४२६. मणुस्सो त्ति वुत्ते पुरिसणवु सयवेदोदइल्लाणं गहणं । मणुस्सिणि त्ति वुत्चे इत्थिवेदोदयजीवाणं गहणं । जहा अप्पसत्थवेदोदएण मणपज्जवणाणादीणं ण न करके सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है। पुनः सम्यक्त्वके साथ अतिलघु काल तक रहकर और स्थितिघात न करके सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है उसके सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होनेके पहले समयमें उत्कृष्ट स्थिति विभक्ति होती है। अनाहारकोंका कार्मणकाययोगियोंके समान स्वामित्व जानना चाहिये। इस प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ। * इसके आगे जघन्य स्वामित्वको कहते हैं । ४२४. अब जघन्य स्वामित्वको कहते हैं। इस प्रकार इस सूत्र द्वारा शिष्योंकी सम्हाल की है। इस जघन्य स्वामित्वकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघके कथन करनेके लिये यतिवृषभ आचार्य आगेका सूत्र कहते हैं * मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? ६४२५. यह सूत्र सुगम है। * मनुष्य या मनुष्यिनीके उदयावलिमें प्रविष्ट होकर क्षयको प्राप्त होता हुआ जो मिथ्यात्व कम है उसकी जब दो समय प्रमाण स्थिति शेष रहती है तब जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। ६४२६. सूत्रमें मनुष्य ऐसा कहने पर उससे पुरुषवेद और नपुंसकवेदके उदयवाले मनुष्यों का ग्रहण होता है। मनुष्यिनी ऐसा कहने पर उससे स्त्रीवेदके उदयवाले मनुष्य जीवोंका ग्रहण होता है। जिस प्रकार अप्रशस्त वेदके उदयके साथ मनःपर्ययज्ञानादिकका होना संभव नहीं है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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