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________________ २४२ : जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ संभवो तहा दंसणमोहणीयक्खवणाए तत्थ किं संभवो अत्थि णत्थि त्ति संदेहेण घुलतहियस्स सिस्ससंदेहविणासण मणुस्सस्स मणुस्सणीए वा त्ति भणिदं । खविजमाणयं ति वुत्ते मिच्छत्तस्स गहणं, अण्णस्सासंभवादो। श्रावलियं ति वृत्ते उदयावलियाए गहणं; मिच्छत्तचरिमफालियाए परसरूवेण गदाए उदयावलियपविद्वणिसेगे मोत्तूण अण्णेसिमवहाणाभावादो । एत्थ जमावलियं पविद् खविज्जमाणयं मिच्छत्तं अधडिदिगलणाए गलिय जाधे तं दुसमयकालडिदिगं सेसं ताधे तस्स जहण्ण हिदिविहत्ती होदि त्ति संबंधो कायव्वो) कधं सुत्तम्मि असंताणं पदाणमझाहारो कीरदे ! ण, मुत्तस्सेव अवयवभूदाणं सुगमत्तणेण तत्थ अणुच्चारिज्जमाणाणं तत्थ अभावविरोहादो। इसी प्रकार अप्रशस्त वेदके उदयमें दर्शनमोहनीयकी क्षपणा क्या संभव है या नहीं है इस प्रकार सन्देहसे जिसका हृदय घुल रहा है उस शिष्यके सन्देहको दूर करनेके लिये सूत्रमें 'मणुस्सस्स ‘मणुस्सणीए वा' यह पद कहा है। सूत्रमें 'खविज्जमाणयं ऐसा कहने पर उससे मिथात्वका ग्रहण करना चाहिय, यहां अन्यका ग्रहण नहीं हो सकता है। सूत्र में 'आवलियं ऐसा कहने पर उससे उदयावलिका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिके पररूपसे संक्रमित हो जाने पर उदयावलिमें प्रविष्ट हुए निषेकोंको छोड़कर अन्य निषेकोंका सद्भाव नहीं पाया जाता है। यहाँ पर जो उदयावलिमें प्रविष्ट होकर क्षयको प्राप्त होनेवाला मिथ्यात्व कर्म है वह अधःस्थिति. गलना रूपसे गलित होकर जब दो समय काल स्थितिप्रमाण शेष रहता है तब उसकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है ऐसा सम्बन्ध कर लेना चाहिये । शंका-जो पद सूत्रमें नहीं है उनका अध्याहार कैसे किया जा सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि जो सूत्रके ही अवयवभूत हैं पर सुगम होनेसे जिनका वहां उच्चारण नहीं किया है उनका अस्तित्व यदि वहाँ नहीं स्वीकार किया जाता है तो विरोध आता है । विशेषार्थ-यद्यपि ऐसा नियम है कि स्त्रीवेदवाले और नपुंसकवेदवाले मनुष्यके मनःपर्ययज्ञान, परिहारविशुद्धिसंयम, आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगकी प्राप्ति नहीं होती फिर भी क्षायिकसम्यक्त्व और क्षायिकचारित्रकी प्राप्ति तीनों वेदोंके रहते हुए हो सकती है, इसी बातका ज्ञान करानेके लिए सूत्रमें मनुष्य और मनुषियनी इन दोनों पदोंका ग्रहण किया है। यहां मनुष्य पदसे पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी मनुष्योंका ग्रहण करना चाहिये और मनुष्यनी पदसे स्त्रीवेदी मनुष्योंका ग्रहण करना चाहिये। इस प्रकार जब इन तीन वेदवालोंमेंसे कोई एक वेदवाला मनुष्य दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करता हुआ मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिमें स्थित उदयावलिप्रमाण निषेकोंको गलाता हुआ अन्तमें दो समय स्थितिवाला एक निषेक शेष रखता है तब उसके मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति होती है । मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिके प्रतिपादक उक्त चूर्णिसूत्रका समुदायार्थ कहते समय वीरसेन स्वामीने 'अधद्विदिगलणाए गलिय' इतना पद और जोड़ा है । इस पर शंकाकारका कहना है कि ये पद पूर्ववर्ती सूत्रोंमें तो पाये नहीं जाते, अतः यहां इनका अध्याहार कैसे किया जा सकता है, क्योंकि अध्याहार तो उन्हीं पदोंका होता है जो पूर्ववर्ती सूत्रोंमें आ चुके है । इस शंकाका वीरसेन स्वामीने जो समाधान किया है उसका सार यह है कि कोई ' पद यदि पूर्ववर्ती सूत्रोंमें न आया हो तो भी उसका अध्याहार करने में कोई आपत्ति नहीं, क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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