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________________ ४२० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ ६७००. ओरालियमिस्स तिरिक्खोघ । णवरि अणंताणु० चउक्क० एइंदियभंगो। वेउव्वियमिस्स० सम्मत्त-सम्मामि० ज० देवोघं । सेस० उक्क भंगो । ७०१ आहार-आहारमिस्स० उक्क०भंगो०। एवमकसा०-जहाक्खादसंजदे त्ति । इत्थि० सम्मामि०-अणंताणु०चउक्क० ओघं। मिच्छत्त-सम्मत्त विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है तथा अजघन्य स्थितिका अन्तरकाल नहीं है यह पहले बतला आये हैं उसी प्रकार एकेन्द्रियोंके जानना चाहिये, इसलिये एकेन्द्रियोंके उक्त दो प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके अन्तरका कथन पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंके समान कहा । शेष कथन सुगम है । मूलमें सामान्य पृथिवी आदि जो और मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें यह व्यवस्था बन जाती है, इसलिये इनके कथनको एकेन्द्रियोंके समान कहा । किन्तु कार्मणकाययोग और अनाहारकोंमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि इनमें कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि जीव भी उत्पन्न होते हैं अतः यहाँ सम्यक्त्वकी ओघ जघन्य स्थिति बन जाती है। तदनुसार यहाँ इसका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण होता है जो सामान्य तिर्यंचोंके इस प्रकृतिकी जघन्य स्थितिके अन्तरके समान है। अतः यहाँ सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिके अन्तरको सामान्य तिर्यंचोंके समान कहा। तथा इन दोनों मार्गणाओंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है और यही यहाँ इनकी अनुत्कृष्ट या अजघन्य स्थितिका अन्तरकाल है, इसलिये यहाँ इन दो प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिके अन्तरको अनुत्कृष्ट स्थितिके अन्तरके समान कहा । पाँचों स्थावरकाय बादर पर्याप्त जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्ये और अजघन्य स्थितिका अन्तरकाल पंचेन्द्रियतिथंच अपर्याप्तकोंके समान प्राप्त होता है, अतः इनके कथनको पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंके समान कहा ।। ६७००. औदारिकमिश्रकाययोगियों में सामान्य तिर्यंचोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा एकेन्द्रियोंके समान भंग है। वैक्रियिक मिश्रकाययोगियोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका अन्तर सामान्य देवोंके समान है । तथा शेष प्रकृतियों का अन्तरकाल उत्कृष्टके समान है। विशेषार्थ—औदारिकमिश्रकाययोगमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना नहीं होती है इसलिये इनके उक्त प्रकृतियोंकी ओघ जघन्य स्थिति न प्राप्त होकर आदेश जघन्य स्थिति प्राप्त होती है जिसका यहाँ अन्तर नहीं पाया जाता। यही बात एकेन्द्रियोंके है। अतः औदारिकमिश्रकाययोगमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कके भंगको एकेन्द्रियोंके समान क्रहा। सामान्य देवों में सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वषपृथक्त्व है । तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है जो वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें भी सम्भव है अतः वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भंगको सामान्य देवोंके समान कहा। शेष कथन सुगम है। ६७०१. आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियोंमें उत्कृष्टके समान भंग है । इसी प्रकार अकषायी और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिये। स्त्रीवेदवालोंमें सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग ओघके समान है। मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, बारह कषाय और ना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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