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________________ AAAAAAAAAAAAAAAAnnn १६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ हिदीहिंतो भेदुवलंभादो । अथवा सुहुमसांपराइयचरिमसमयपरमाणुपोग्गलक्खंधकालो एया हिदी णाम । तस्स एगसमयणिप्पण्णत्तादो । एसा वि हिदी हिदिविहत्ती होदि, दुसमयादिहिदीहिंतो पुधभूदत्तादो । तत्थेव भिण्णपरमाणुहिदसमएहितो अप्पिदकालसमयस्स पुधभावुवलंभादो वा सगाहारपरमाणुम्मि पोग्गलक्खंधे वावडिदतिकालगोयराणंतपज्जएहिंतो एदिस्से हिदीए पुधभावदसणादो वा विहत्तित् जुज्जदे । दबहियणयमस्सिदूण एसा परूवणा कदा। उकस्स-समऊणुकस्स-दुसमऊणुक्कस्सादिभेदेण अणेयाओ हिदीओ ताओ वि हिदिविहत्ती होति, समाणासमाणहिदीहितो परमाणुपोग्गलभेदेण च भेदुवलंभादो । एदमपदं पज्जवहियसिस्साणुग्गहर कदं । ३५८. का हिदी णाम ? कम्मसरूवेण परिणदाणं कम्मइयपोग्गलक्खंधाणं कम्मभावमछंडिय अच्छणकालो हिदी णाम । उत्तरपयडीणं हिदी उत्तरपयडिहिदी। का उत्तरपयडी ? मूलपयडीए अवांतरपयडीओ। कथं मदि-सुद-ओहि-मणपज्जवकेवलणाणावरणीयाणं पुधभूदणाणेसु वावदाणं पयडीणमेयत्तं ? ण, णाणसामण्णेण सव्वेसिं णाणाणमेयत्तमुवगयाणमावरणाणं पि एयत्ताविरोहादो।" आदि स्थितियों से इसमें भेद पाया जाता है। अथवा सूक्ष्मसांपरायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें पुद्गल परमाणुओंके स्कन्धका जो काल है वह एक स्थिति कहलाती है, क्योंकि वह काल एक समय निष्पन्न है । यह स्थिति भी एक स्थितिविभक्ति होती है, क्योंकि यह दो समय आदि स्थितियोंसे भिन्न है । अथवा उसी सूक्ष्मसांपरायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें भिन्न परमाणुओं में स्थित समयोंसे विवक्षित कालसमय पृथक् पाया जाता है। अथवा अपने आधारभूत परमाणुओं में या पुद्गलस्कन्धमें अवस्थित त्रिका की विषयभूत अनन्त पर्यायोंसे यह स्थिति पृथक देखी जाती है, इसलिये इसमें विभक्तिपना बन जाता है। यह कथनी द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षासे की है। तथा जो उत्कृष्ट, एक समय कम उत्कृष्ट और दो समय कम उत्कृष्ट आदिके भेदसे अनेक स्थितियाँ हैं वे भी स्थितिविभक्ति कहलाती हैं, क्योंकि इनमें समान और असमान स्थितियोंकी अपेक्षा तथा पुद्गल परमाणुओंके भेदकी अपेक्षा भेद पाया जाता है। यह अर्थपद पर्यायार्थिक बुद्धिवाले शिष्यों के उपकारके लिये किया है। ६३५८. शंका-स्थिति किसे कहते हैं ? समाधान-कर्मरूपसे परिणत हुए पुद्गलकर्मस्कन्धोंके कर्मपनेको न छोड़कर रहनेके कालक स्थिति कहते हैं। उत्तर प्रकृतियोंकी स्थितिको उत्तर प्रकृतिस्थिति कहते हैं । शंका-उत्तर प्रकृति किसे कहते हैं ? समाधान-मूल प्रकृतिकी अवान्तर प्रकृतियोंको उत्तरप्रकृति कहते हैं। शंका-भिन्न भिन्न ज्ञानोंमें व्यापार करनेवाले मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरणरूप प्रकृतियोंमें एकपना कैसे बन सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि ज्ञानसामान्यकी अपेक्षा सभी ज्ञान एक हैं, अतः उनकोआवरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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