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________________ गा० २२ । द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिअंतरं सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सटिदिसंतकम्मं कादूण सम्मण अंतोमुहुत्तमच्छिय मिच्छत्त गंतूण देसूणद्धपोग्गलपरियढें परिभमिय पुणो तिण्णि वि करणाणि करिय पढमसम्मत्त पडिवज्जिय मिच्छत्त गंतूणुक्कस्सहिदि बंधिय अंतोमहुत्तेण वेदगसम्मत्तमवगयपढमसमए मिच्छत्तु क्कस्सहिदीए सम्मत्तसम्मामिच्छत्तेसु संकंताए लद्धमंतरं होदि। एवं पुल्लिंतिल्लअंतोमुहुरोणूणमद्धपोग्गलपरियट्टमुक्कस्संतरं । ऊणमद्धपोग्गलपरियट्ट उघडपोग्गलपरियदृ ति घेत्तव्यं । ५४३. संपहि चुण्णिसुत्तपरूवणं काऊण विसेसोवलद्धि पडुच्च पुणरुत्तभयं छडिय सोघमुच्चारणं भणिस्सामी । अंतरं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सं च । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मिच्छत्त-बारसक० उक्क० ज० अंतोम०, उक्क० अणंतकालं० । अणुक्क० ज० एगसमो, उक्क० अंतोम० । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० जह• अंतोमु०, उक्क० उवडपोग्गलपरिय। अणक्क० ज० एगस०, उक्क० उवडपो०परिय। अणंताणु० चउक्क० उक्क० अंतरं केवचिरं० ? ज. अंतोमु०, उक्क० अणंतकाल० । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० बेछावहिसागरोवमाणि देसूणाणि । पंचणोक० उक्क० जह० एगस०, उक्क० अणंतकाल। अणुक्क० ग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मको करके तथा सम्यक्त्वके साथ अन्तमुहूत कालतक रहकर मिथ्यात्वमें गया । पुनः वह मिथ्यात्वके साथ कुछ कम अर्धपुद्गल परिवतन कालतक परिभ्रमण करके पुनः तीनों करण करके प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। तदनन्तर उसने मिथ्यात्वमें जाकर और वहाँ मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर अन्तमुहूर्त कालके द्वारा वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके प्रथम समयमें मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रमण किया। तब जाकर उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होता है। इस प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर पहलेके और अन्तके अन्तमुहूर्तोंसे कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण प्राप्त होता है। यहाँ सूत्रमें जो उपार्थ पुद्गल परिवर्तन पदका ग्रहण किया है सो उससे कुछ कम अर्धपुद्गल परिवतनरूप कालका ग्रहण करना चाहिये। ५४३ इस प्रकार चूर्णिसूत्रका कथन करके अब विशेष ज्ञान करानेके लिये पुनरुक्त दोषके भयको छोड़कर ओघसहित उच्चारणाका कथन करते हैं-अन्तर दो प्रकारका है-जघन्य अन्तर और उत्कृष्ट अन्तर । उनमें से उत्कृष्ट अन्तरका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है। अनुस्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर उपाधं पुद्गलपरिवर्तन काल है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर उपार्ध पुद्गल परिवर्तनकाल है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिका अन्तर कितना है ? जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ठ अन्तर कुछ कम एकसौ बत्तीस सागरप्रमाण है। पांच नोकषायोंकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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