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________________ गा० २२ ] . हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियसरिणयासो ४६१ एवं पण्णारसक०-णवणोकसायाणं । एवं मणुसअपज्जा-बादरेइंदियअपज -मुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्त-सव्वविगलिंदिय-पंचिं०अपज्ज०-बादरपुढविअपज्ज०-मुहुमपुढवि-पज्जतापज्जत्त-चादराउअपज०-मुहुमाउ-पज्जत्तापज्जत्त-तेउ-बादरमुहुमपज्जत्तापज्जत्तवाउ०-वादरमुहुमपज्जत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्तेय०अपज्ज०-णिगोद-बादरमुहुमपज्जत्तापज्जत्त-तसअपज्जत्ता त्ति ।। ८२६. आणदादि जाव उवरिमगेवजं ति मिच्छत्तुक्कस्सहिदिविहत्तियस्स सम्मत्त-सम्मामि० सिया अत्थि, सिया णत्थि । जदि अस्थि किमक्क० अणक ? उक्क० अणुक्कस्सा वा । उक्कस्सादो अणुक्कस्सा पलिदो० असंखेभागुणमादि कादूण जाव एगा हिदि त्ति । णवरि चरिमुव्वेल्लणकंडयचरिमफालीयाए ऊणा । सोलसक०णवणोक० किमुक्क० अणुक्क० ! णियमा उक्क० । एवं सोलसक०-णवणोक० । सम्मत्त० उक्कस्सहिदिविहत्तियस्स मिच्छत्त-सम्मामि०-सोलसक०-णवणोक० किमुक्का अणुक्क० १ णियमा उक्क । एवं सम्मामि० । ८२७. अणुदिसादि जाव सव्वदृसिद्धि ति मिच्छत्तुक्कस्सहिदिविहत्तियस्स और नौ नोकषायोंकी स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सब विकलान्द्रय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादरअग्निकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकाायक प्रत्येक शरार अपर्याप्त, निगोद, बादर निगोद, बादर निगोद पयोप्त, बादर निगोद अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोद, सूक्ष्म निगोद पर्याप्त, सूक्ष्म निगाद अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये। ६८२६. आनत कल्पसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देवोमें मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिक धारक जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो प्रकृतियाँ कदाचित् है और कदाचित् नहीं हैं। यदि हैं ता इनको स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी । उनमेंस अनुत्कृष्ट स्थिति पल्यापमके असंख्यातवें भाग कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर एक स्थिति तक होती है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इसमेंसे अन्तिम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिप्रमाण स्थितियोंको घटा देना चाहिये। सालह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या उत्कृष्ट हाती हे या अनुत्कृष्ट ? नियमसे उत्कृष्ट हाती है। इसी प्रकार सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिके धारक जीवके सन्निकर्षे जानना चाहिय । सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके धारक जीवक मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होता हे या अनुत्कृष्ट ? नियमसे उत्कृष्ट होता है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थितिविभाक्तके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये ।। ८२७. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्वको उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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