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________________ गा० २२ ] विहत्तीए उत्तरपयडिट्ठिदिकालो $ ५१६. पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज० मिच्छत्त० - सोलसक० -भय-दुगुंछाणं जह० ज० एस ०, उक्क० वे समया अ० ज० खुद्दाम वग्गहणं दुसमऊणं एयसमत्रो वा, उक्क० अंतोमु० । सम्मत्त सम्मामि० जह० जहण्णुक्क० एस० । अज० ज० एगस ०, उक्क० अंतोमु० | सत्तणो० ज० जहण्णुक्क० एस० | अज० जहण्णुक्क • अंतोमु० । एवं मणुस पज्ज० - पंचिंदियअपज्ज० - तस अपज्जत्ताणं । १५१६. पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों में मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है । तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल दो समय कम खुदाभवग्रहणप्रमाण या एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा २६७ जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और जीवोंके जानना चाहिये । अपर्याप्त विशेषार्थ - तिर्यंचों में मिध्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति बादर एकेन्द्रियोंमें कमसे कम एक समय तक और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक प्राप्त होती है, अतः इनमें उक्त प्रकृतियों की जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कहा है। तथा जो तिथंच जघन्य स्थितिके पश्चात् एक समय तक उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थिति के साथ रहा और दूसरे समयमें मर कर अन्य गतिमें उत्पन्न हो गया उसके उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय होता है । तिर्यंचोंमें उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थिति के साथ रहनेका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक है, क्योंकि सूक्ष्म एकेन्द्रियों में जघन्य स्थिति नहीं होती और सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें रहनेका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक है, अतः उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक कहा । सम्यक्त्व और सम्यग्मि - थ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल नारकियोंके समान जानना । किन्तु जघन्य स्थिति उत्कृष्ट कामें विशेषता है । बात यह है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के साथ कोई जीव तिर्यंचपर्याय में अधिक से अधिक साधिक (पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक) तीन पल्य तक रह सकता है, अतः इनमें उक्त दो प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य कहा । तिर्यंचपर्याय में अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थिति के साथ निरन्तर रहनेका काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन है अतः इनमें अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा । अन्तानुबन्धीकी अपेक्षा शेष कथन सामान्य नारकियोंके समान जानना । जो कषायों की जघन्य स्थितिका बन्ध करके पश्चात् प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका दीर्घकाल तक बन्ध करता है उसके प्रतिपक्ष प्रकृतियों के बन्धके अन्तिम समय में सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति होती है, अतः सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । तथा तिर्यंच पर्यायमें रहने का जघन्य काल खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है, अतः सात नोकषायोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण कहा । पंचेन्द्रिय तिर्यंचत्रिक के पहले और दूसरे विग्रह के समय जघन्य स्थिति हो सकती है अतः इनके मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जवन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा । तथा ३= Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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