SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 371
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ રૂપૂર્ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ता तिरिक्खजोणिणि - पंचि ० तिरि० अपज्ज० मणुसतिय सव्वदेव - सव्वविगलिंदिय० -सत्रपंचिदिय - बादरपुढविपज्ज० - बादर आउपज्ज० - बादरते उपज्ज० - बादरवाउपज्ज० - बादरवणफ दिपत्तेय पज्ज० - सव्वतस - पंचमण० - पंचविच० - कायजोगि० - ओरालि० - वेडव्विय०इत्थि० - पुरिस० स० - चत्तारिक० विहंग ० - आभिणि० - सुद० - ओहि ० - मणपज्ज०संजद ० - सामाइय-छेदो० - परिहार० - संजदासंजद ० चक्खु ० चक्खु०-३ - ओहिदंस० तेउ०- सुक्क० - भवसिद्धि० सम्मादि ० खइय० वेदय ० -सण्णि० - आहारए त्ति । ५६. तिरिक्खगईए तिरिक्ख० मिच्छत्त० - बारसक० - भय- दुगुंछा० ज० अज० णियमा अत्थि । सेसपयडीणमोघं । मणुस अपज्ज० उक्क भंगो सव्वपयडीणं । एवं वेत्रिय मिस्स ० - आहार०- आहार मिस्स ० - अवगद ० -अकसा० - सुहुम० - जहाक्खाद०उवसम०- सासण०-सम्मामि० दिहिति । पम्म० ० - ६ ५६७. एइंदिएसु मिच्छत्त- सोलसक० णवणोक० जह० अजह० णियमा अत्थि । सम्मत्त - सम्मामि० श्रघं० । एवं बादरेइंदिय - बादरे इंदियपज्जत्तापज्जत्त-मुहुमे इंदियसुहुमेइं दियपज्जत्तापज्जत्त पुढवि०- बादर पुढवि० - बादर पुढविअपज्ज० सुहुम पुढवि० सुहम पुढ विपज्जत्तापज्जत्त आउ०- बादरआउ०- बादरचा उपज्ज०- - सुहुमआउ- सुहुमया उपज्जत्तातियेंच यानिमती, पंचेन्द्रियं तिर्यंच अपर्याप्त, सामान्य मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त, मनुष्यनी, सब देव, सब विकलेन्द्रिय, सब पंचेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त, सब त्रस, पांचों मनोयोगी, पाच वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, नपुंसकवेदवाले, चारों कषायवाले, विभंगज्ञानी, आभिनिबाधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानां संयत, सामायिकसंयन, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, शुक्ल लेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवों के जानना चाहिये । ९ ५६६. तियंचगतिमें तिर्यंचों में मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं । तथा शेष प्रकृतियोंका कथन के समान है । मनुष्य अपयातकों में सब प्रकृतियोंका भंग उत्कृष्ट के समान है । इसी प्रकार वैकियिक मिश्रकायोगी, आहारककाययोगी, आहारक मिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, सूक्ष्मसां परायिकसंयत, यथाख्यात संयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । ५७. एकेन्द्रियों में मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायों की जवन्य और अजघन्य स्थिति विभक्तिवाले जीव नियमसे हैं । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग के समान हैं । इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त सूक्ष्म एट्रिय अपर्याप्त, पृथिवीकायिक, बादरपृथिवीकायिक, वादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्मपृथिवीकायिक, सूक्ष्मपृथिवी कायिकपर्याप्त, सूक्ष्मपृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक, बादरजल कायिक, बादरजलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्मजलकायिक, सूक्ष्म जलकायिकपर्याप्त, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy