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________________ गा० २२ ] safar उत्तरपयडिडिदिविहत्तीए भंगविचत्रो ३५१ * जहरिणयाए हिंदीए सिया सव्वे जीवा विहत्तिया । सिया विहशिया च विहन्ति च । सिया विहत्तिया च अविहत्तिया च । ५६१. एवमेदाणि तिष्णि वि सुत्ताणि सुगसाणि । * एवं तिरिण भंगा । ९५९२. एदं पि सुगमं । * एवं सेसाणं पयडीणं कायव्वो । ९ ५९३. जहा मिच्छत्तस्स णाणाजीवभंगविचयपरूपणा कदा तहा सेसपयडीणं पि भंगविचओ काव्बो | ५९४ एवं जइबसहाइरिएण सूचिदत्थाणमुच्चारणाइरिएण मंदबुद्धिजणाries कयवक्खाणं भणिस्सामो । १५६५ जण पदं । दुविहो लिसो - ओघेण आदेसेण य । ओघेए बीस पडणं जहरिणयाए हिंदीए सिया सव्वे जीवा अविहत्तिया, सिया अविहत्तिया च वित्तिय च, सिया अविहत्तिया च विहत्तिया च । श्रहणहिदीए सिया सव्वे जीवा विहत्तिया, सिया विहत्तिया च अविहत्तिओ च, मिया विहत्तिया च विहत्तिया च । एवं सत्तसु पुढवीसु पंचिदियतिरिक्ख पंचि ० तिरि०पज्ज०-पंचि० * मिथ्यात्व की जघन्य स्थितिकी अपेक्षा कदाचित् सब जीव विभक्तिवाले हैं । कदाचित् बहुत जीव विभक्तिवाले हैं और एक जीव अविभक्तिवाला है । कदाचित् बहुत जीव विभक्तिवाले हैं और बहुत जीव विभक्तिवाले हैं। 1 $ ५६१. इस प्रकार ये तीनों ही सूत्र सुगम हैं । * इस प्रकार तीन भंग होते हैं । ९ ५६२. यह सूत्र भी सुगम है । * इसी प्रकार शेष प्रकृतियोंकी प्ररूपणा करनी चाहिये । ९५६३. जिस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा मिध्यात्वकी भंगविचयप्ररूपणा की है उसी प्रकार शेष प्रकृतियों का भी भंगविचय करना चाहिये । · ९ ५६४. इस प्रकार यतिवृषभ आचार्यके द्वारा सूचित किये गये अर्थोंका उच्चारणाचार्यने मन्दबुद्धि जनों के अनुग्रह के लिये जो व्याख्यान किया है अब उसे कहते हैं Jain Education International ६ ५६५, अब जघन्य स्थितिका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओबसे अट्ठाईस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिकी अपेक्षा कदाचित् सब जीव अविभक्तिवाले हैं । कदाचित् बहुत जीव अविभक्तिवाले हैं और एक जीव विभक्तिवाला है । कदाचित् बहुत जीव अविभक्तिवा हैं और बहुत जीव विभक्तिवाले हैं । अन्य स्थितिकी अपेक्षा कदाचित् सब जीव विभक्तिवाले हैं । कदाचित् बहुत जीव विभक्तिवाले हैं और एक जीव अविभक्तिवाला है । कदाचित् बहुत जीव विभक्तिवाले हैं और बहुत जीव अविभक्तिवाले हैं। इसी प्रकार सातों पृथिवियों में रहनेवाले नारकी, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय 7 - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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