SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 436
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा. २२ ] हिदिविहतीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तिअंतरं ४१७ जोणिणी-भवण-वाण जोदिसि०-वेउव्विय० जोगे ति । ६६६. तिरिक्ख० मिच्छत्त-बारसक०-भय-दुगुंछज. अज० णत्थि अंतरं । सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु० पढमपुढवीभंगो । सत्तणोक. एवं चेव । पंचिंतिरि०अपज्ज. पंचितिरिक्वजोणिणीभंगो । णवरि अर्णताणु०चउक्क० अपज्जत्तकस्सभंगो। एवं सव्वबिगलिंदिय-पंचिं०अपज्ज-तसअपज्जते त्ति । है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तियेच योनिमती, भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैक्रियिककाययोगी जीवोंके जानना चाहिये। विशेषार्थ-नारकियोंके सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण बतला आये हैं तथा यह भी बतला आये हैं कि इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल नहीं होता । इसी प्रकार यहां भी मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके अन्तरकालके विषयमें जानना चाहिये । कारण जो उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके अन्तरके समय बतला आये हैं वे ही यहां जानना चाहिये । किन्तु शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके अन्तरकालके विषयमें कुछ विशेषता है। बात । यह है कि नरकमें कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है, अत: वहां सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्राप्त होता है, क्योंकि सम्यक्त्वकी ओघ जघन्य स्थिति कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टिके ही प्राप्त होती है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन रात जानना चाहिये । इसका कारण ओघ. प्ररूपणाके समय बतला ही आये हैं। तथा इन छहों प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका अन्तरकाल नहीं पाया जाता यह स्पष्ट ही है। मूलमें पहली पृथिवीके नारकी आदिक जो और तीन मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें यह सब व्यवस्था बन जाती है, अतः उनके कथनको सामान्य नारकियोंके समान कहा है। द्वितीयादि पृथिवियोंमें कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते हैं अतः वहां सम्यक्त्वकी ओघ जघन्य स्थिति सम्भव न होकर आदेश जघन्य स्थिति पाई जाती है जो उद्वेलनाके समय सम्भव है और उद्वेलनाका उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात होता है अतः यहां सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका अन्तर सम्यग्मिथ्यात्वके समान कहा। यहां इतनी ही विशेषता है शेष सब कथन सामान्य नारकियोंके समान है। मूलमें जो पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिमती आदि मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें दूसरी पृथिवीके समान व्यवस्था बन जाती है, इसलिये उनके कथनको दूसरी पृथिवीके समान कहा। ६६६६ तियचोंमें मिथ्यात्व बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग पहली पृथिवीके समान है। सात नोकषायोंका भंग भी इसी प्रकार जानना चाहिये। पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंमें पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियोंके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा भंग पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्तकोंके उत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये। विशेषार्थ-तिचंचोंका प्रमाण अनन्त है। उनमें मिथ्यात्व, बाहर कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं अतः इनका अन्तर काल नहीं है। तिर्यंचोंमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति कृतकृत्यवेदकसम्यक्त्वके समय, सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य ५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy