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________________ ४१८ - जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ १६६७. मणुसिणीसु सम्मामि०-अणंताणु०चउक० ओघं । सेस० ज० ज० एगस०, उक्क वासपुधत्त । अज० णत्थि अंतरं । मणुसअपज्ज० छव्वीसपयडीणं उक्कस्सभंगो। सम्म०-सम्मामि० जह० अज० जह० एयसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । ६६९८. देवाणं णारगभंगो । एवं सोहम्मादि जाव उवरिमगेवज्जा त्ति । अणुद्दिसादि जाव सव्वद्या त्ति एवं चेव । णवरि सम्म०-अणंताणु० चउक्क० जह० ज० स्थिति उद्वेलनाके समय और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थिति विसंयोजनाके समय पाई जाती है जिनका अन्तरकाल पहले नरकके समान यहां भी बन जाता है, अतः इनके भंगको पहली पृथिवीके समान कहा तथा सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति, जो एकेन्द्रिय स्थितिसत्त्वके समान स्थितिको बांधकर पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुए हैं उनके, प्रतिपक्ष प्रकृति के बन्धकालके अन्तिम समयमें होती है । अब यदि नानाजीवोंकी अपेक्षा इसका अन्तरकाल देखा जाय तो पहली पृथिवीके नारकियोंके समान यहां भी जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है इसलिये तियचोंमें सात नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका भंग पहले नरकके समान कहा । पंचेन्द्रियतियच योनिमती जीवोंके पहले सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजवन्य स्थितिका अन्तर दूसरी पृथिवीके समान कर आये हैं उसी प्रकार यहां पंचेन्द्रिय तियेच अपर्याप्तकोंके कर लेना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना नहीं होती, इसलिये यहां अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी ओघ जघन्य स्थिति न प्राप्त होकर आदेश जघन्य स्थिति प्राप्त होती है और इसलिये यहां इनकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है जो कि इनके अनन्तानुबन्धीकी उत्कृष्ट स्थितिके अन्तरके समान है। यही कारण है कि इनके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिके अन्तरको अपने ही अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिके अन्तरके समान कहा । मूलमें जो सब विकलेन्द्रिय आदि मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी यही व्यवस्था बन जाती है अतः उनके कथनको पंचेन्द्रियतिथंच अपर्याप्तकोंके समान कहा। ६६६७. मनुष्यनियोंमें सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा अन्तरकाल ओघके समान है । तथा शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। तथा अजघन्य स्थिति विभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा भंग उत्कृष्टके समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। विशेषार्थ—मनुष्यनियोंके दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी क्षपणाका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण पाया जाता है, अतः इनमें सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीको छोड़कर शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण कहा। शेष कथन सुगम है। मनुष्यअपर्याप्तकोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अत: इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा । शेष कथन सुगम है । ६६६८ देवोंमें नारकियोंके समान भंग है। इसी प्रकार सौधर्म कल्पसे लेकर उपरिम प्रेवेयक तकके देवोंके जानना चाहिये । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंके भी इसी प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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