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________________ गा० २२.] द्विदिविहत्तीए भुजगारे कालो १२१ ६२१३. कालाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण श्रादेसेण य । तत्थ ओघेण भुज०-अप्पद०-अवढि० केवचिरं कालादो होति ? सव्वद्धा । एवं तिरिक्ख-सव्वएइंदिय-पुढवि०-बादरपुढवि०-बादरपुढविअपज्जक-सुहुमपुढवि०-सुहुमपुढविपज्जत्तापज्जत्त-आउ०-बादराउ०-बादरआउअपज्ज०-सुहुमाउ.--सुहुमआउपज्जत्तापज्जत्ततेउ०-बादरतेउ०-बादरतेउअपजत्त--सुहुमतेउ०--सुहुमतेउपज्जत्तापज्ज०-वाउ०-बादरवाउ-बादरवाउअपज्जा-सुहुमवाउ०-सुहुभवाउपज्जत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिपचेय०बादरवणप्फदिपतेयअपज्ज०--सव्ववणप्फदि- सव्वणिगोद०---कायजोगि--ओरालिय०ओरालियमिस्स-कम्मइय०-णवूस-चत्तारिक०-मदि-सुदअण्णा०-असंजद०-अचक्खु०तिण्णिले०-भवसि०-अभवसि०-मिच्छादिही-असण्णि०-आहारि०-अणाहारि त्ति । $ २१४. आदेसेण णेरइएसु भुज० के० ? जह० एयसमओ, उक्क० श्रावलि. असंखे०भागो। अप्पद०-अवहि० के०? सव्वद्धा । एवं सत्तसु पुढवीसु सव्वपंचिंदियतिरिक्व०-देव-भवणादि जाव सहस्सारे त्ति सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-बादरपुढविपज्ज०-बादराउपज्ज०- बादरतेउपज्ज० - बादरवाउपज्ज - बादरवणप्फदिपत्रेयपज्ज०सव्वतस-पंचमण-पंचवचि०-वेउव्विय -इत्थि०-परिस-विहंग०-चक्खु०- तेउ०-पम्म०सण्णि त्ति । ६२१३. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिका कितना काल है ? सब काल है। इसी प्रकार सामान्य तियच, सभी एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त,सूक्ष्मपृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, सभी वनस्पतिकायिक, सभी निगोद, काययोगी, औदारिक काययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। ६२१४. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें भुजगार स्थितिविभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। तथा अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिका कितना काल है ? सर्व काल है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी पंचेन्द्रिय तिथंच, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देव, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त, सभी त्रस, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैक्रियिक काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगज्ञानी, चक्षुदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्वावाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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