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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ सम्मामिच्छत्तभंगो। ६६४. विदियादि जाव छहि त्ति मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० ओघ । (ओघम्मि छण्णोकसायाणं जहण्णहिदिकालो जहण्णुक्कस्सेण चुण्णिसुत्तम्मि वप्पदेवाहरियलिहिदुच्चारणाए च अंतोमुहुत्तमिदि भणिदो) अम्हेहि लिहिदुच्चारणाए पुण जह. एमसमो उक्क संखेज्जा समया त्ति परूविदो, कालपहाणचे विवक्खिए तहोवलंभादो । तेण छण्णोकसायाणमोघ ण विरुज्झदे। सम्मत्त-सम्मामि०-अर्णताणु०चउक्क० ज० ज० एगस०, उक्क० श्रावलि० असंखे०भागो। अज० सव्वद्धा । एवं जोइसि०-वेउवि०-विहंगणाणि त्ति । णवरि विहग अणंताण चउक्क० मिच्छत्तभंगो। सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। विशेषार्थ-नरकमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव मरकर उत्पन्न होते हैं, अतः यहां सम्यक्त्व प्रकृतिकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल ओघके समान बन जाता है। शेष कथन सुगम है । पहली पृथिवीके नारकी आदि मूलमें और जितनी मार्गणाएं गिनाई है उनमें सामान्य नारकियोंके समान काल सम्बन्धी ब्यवस्था बन जाती है अतः उनके कथनको सामान्य नारकियोंके समान कहा । किन्तु योनिमती तिर्यंचोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते, अतः वहां सम्यक्त्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल सम्यग्मिथ्यात्वके समान जानना चाहिये, क्योंकि योनिमती तिथंचोंके सम्यक्त्वकी ओघ जघन्य स्थिति न प्राप्त होकर आदेश जघन्य स्थिति ही प्राप्त होगी जो कि सम्यग्मिथ्यात्वके समान होती है। ६६४. दूसरी पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा ओघके समान काल है। चूर्णिसूत्रमें और वपदेव आचार्यके द्वारा लिखी गई उच्चारणामें ओघका कथन करते समय छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । परन्तु हमारे द्वारा लिखी गई उच्चारणामें जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है, क्योंकि प्रधानरूपसे कालकी विवक्षा होने पर जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय बन जाता है, अतः छह नोकषायोंके कालको ओघके समान कहनेमें कोई विरोध नहीं आता है। तथा सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार ज्योतिषीदेव, वैक्रियिककाययोगी और विभंगज्ञानियोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि विभंगज्ञानियों में अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग मिथ्यात्वके समान है। विशेषार्थ-ओघसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और तीन वेदोंकी जघन्य स्थितिका जो जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है वह दूसरी पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंके भी बन जाता है, क्योंकि जो सम्यग्दृष्टि जीव इन नरकोंसे निकलकर मनुष्य पर्यायमें आते हैं उन्हींके उक्त कर्मोंकी जघन्य स्थिति सम्भव है किन्तु इन नरकोंमें छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल ओघके समान अन्तर्मुहूर्त प्रमाण नहीं बनता। फिर इन नरकोंमें छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिके कालको भी ओघके समान क्यों कहा? यह शंका है जिसे मनमें रखकर वीरसेन स्वामीने 'ओघम्मि छण्णोकसायाणं' इत्यादि वाक्यों द्वारा उसका समाधान किया है । उनके इस समाधानका भाव यह है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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