SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 408
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिडिदिविहत्तियकालो ३४ ___६४६. कुदो ? उक्कस्सहिदिसंतकम्मियमिच्छाइट्टीणं गिरंतरं वेदयसम्मत्तं पडिवजंताणमावलियाए असंखेजदिभागमेत्तुवक्कमणकालुवलंभदंसणादो। एवं जइवसहाइरियसुत्तपरूवणं करिय एदेण चेव सुशेण देसामासिएण सूचिदत्थाणमुच्चारणाइरियपरूविदवक्खाणं भणिस्सामो। ६५०. कालो दुविहो—जहण्णो उक्कस्सो चेदि । तत्थ उक्कस्सए पयदं। दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ अोघेण छव्वीसपयडी० उक्क० केव० ? ज० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । अणुक्क० सव्वद्धा। सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० के० ? जह० एगसमो, उक्क० श्रावलि० असंखे०भागो । अणुक्क० के० ? सव्वद्धा। एवं सव्वणिरय-तिरिक्ख-पंचिंतिरि०तिय-देव०-भवणादि जाव सहस्सार०पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज०-तस-तसपज्ज०-पंचमण०-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि०-वेउवि०-तिण्णिवेद-चत्तारिकसाय-मदि०-सुदअण्णाण-विहंग०-असंजद ०-चक्खु०-अचक्खु. पंचले०-भवसि०-अभवसि०-मिच्छादिहि-सण्णि-आहारि त्ति । णवरि अभव० सम्म-सम्मामि० णस्थि । ६६४६. शंका-उक्त दोनों प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल आवलीका असंख्यातवां भाग क्यों है ? समाधान-यदि उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मवाले मिथ्यादृष्टि जीव निरन्तर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हों तो वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त होनेका काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही देखा जाता है । अतः उक्त दोनों प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका काल भी आवलीका असंख्यातवां भाग प्राप्त होता है। _इस प्रकार यतिवृषभ आचार्यके सूत्रका कथन करके अब देशामर्षक रूपसे इसी सूत्रके द्वारा सूचित हुए अर्थका उच्चारणाचार्यने जो व्याख्यान किया है उसे कहते हैं - ६५०. काल दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । प्रकृतमें उत्कृष्टसे प्रयोजन है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघकी अपेक्षा छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल कितना है ? जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल सर्वदा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल कितना है ? जघन्य एक समय और उत्कृष्ट आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल कितना है ? सर्वदा है । इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियककाययोगी, तीनों वेदवाले, चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, असंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णादि पांच लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि अभव्योंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो प्रकृतियां नहीं है । विशेषार्थ-ओघसे नाना जीवोंकी अपेक्षा सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुस्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy