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________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियसरिणयासो ४५७ एगसमयपबद्धस्स णिसेगग्गहणडं समयूणदोआवलियमेत्तद्धाणमुवरि गंतूण जहण्णसामित्तप्पधाणादो। तदो सम्मामिच्छ णियमा उक्कस्सं ति सिद्धं । सोलसकसाय-णवणोकसायाणं हिदि विहत्ती किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ? ७५५. सुगममेदं । णियमा अणुक्कस्सा। ७५६. कुदो ? सम्मत्तु क्कस्सद्विदिविहत्तियजीवे पढमसमयवेदयसम्मादिहिम्मि सोलसकसाय-णवणोकसायाणमुक्कस्सहिदिबंधाभावादो । सो वि कुदो ? सगविसेसकारणुक्कस्ससंकिलेसाणुविद्धमिच्छत्त दयाभावादो । ण च कारणेण विणा कज्ज संभवइ, अइप्पसंगादो। __ उकस्सादो अणुक्कस्सा अंतोमुहुत्त णमादि कादूण जाव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेपूणा त्ति । ७५७. तं जहा—अट्ठावीससंतकम्मिएण बद्धमिच्छत्त-सोलसकसायुक्कस्सवाले सूत्रसे जाना जाता है। यदि कहा जाय कि उक्त कथनका क्रोधसंज्वलनसे व्यभिचार हो जायगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि वहाँ एक समयप्रबद्ध के निषेकोंके ग्रहण करनेके लिये एक समय कम दो आवलिप्रमाण काल ऊपर जाकर जघन्य स्वामित्वकी प्रधानता है। अतः सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके समय सम्यग्मिथ्यात्व नियमसे उत्कृष्ट स्थितिवाला होता है यह बात सिद्ध हुई। • सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिके समय सोलह कषायोंकी और नौ नोकषायोंकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कुष्ट ? ६७५५. यह सूत्र सुगम है। ®नियमसे अनुत्कृष्ट होती है । ६७५६. क्योंकि सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले प्रथम समयवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टि जीवके सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध नहीं होता है। शंका-इस जीवके सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध क्यों नहीं होता है ? समाधान-क्योंकि सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जो विशेष कारण उत्कृष्ट संक्लेशसे सम्बन्ध रखनेवाला मिथ्यात्वका उदय है वह वहाँ पर नहीं पाया जाता है । यदि कहा जाय कि कारणके बिना भी कार्य हो जायगा सोभी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अतिप्रसंग दोष आता है। * वह अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति अपनी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त कमसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम तक होती है। ६.७५७ खुलासा इस प्रकार है-जिसने मिथ्यात्व और सोलह कषायों की उत्कृष्ट स्थिति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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