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________________ ३१२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे .. [द्विदिविहत्ती ३ सम०-सासण-सम्मामि । णवरि णवणोक० उक्क० अोघं णत्थि । सम्म०-सम्मामि० अणक्क० जह० अंतोमु० । सासण० सव्वपय० अणु० जह० एयस०, उक्क० तं चेव । स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । तथा नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तवाले जीवोंका काल ओघके समान है । इसी प्रकार उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल ओघके समान नहीं है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । तथा सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल वही पूर्वोक्त है। विशेषार्थ—जब कि ओघसे छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय है तो मनुष्यत्रिकमें इससे अधिक कैसे हो सकता है। पर उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि ओघ उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त होनेवाले सामान्य मनुष्योंका प्रमाण संख्यात है तथा मनष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंका प्रमाण तो संख्यात है ही। अब यदि एक समयमें प्राप्त होनेवाली मनुष्योंके उत्कृष्ट स्थितिका काल अन्तर्मुहूर्त मान लें और एक के बाद दूसरा इस प्रकार निरन्तररूपसे संख्यात मनुष्योंके उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त कराई जाय तो भी उस सब कालका जोड़ अन्तर्मुहूर्त ही होगा । यही कारण है कि मनुष्यत्रिकके उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा। तथा एक जीवकी अपेक्षा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय बतला आये हैं। अब यदि संख्यात जीव लगातार उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त हों तो उनके कालका जोड़ संख्यात समय ही होगा, अतः मनुष्यत्रिकके उक्त दो प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा । इन दो प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय स्पष्ट ही है। तथा इनके सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका काल सर्वदा है यह भी स्पष्ट है, क्योंकि ये निरन्तर मार्गणाएं हैं इसलिये इनमें सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं। लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंका प्रमाण असंख्यात है और उनमें आदेश उत्कृष्ट स्थिति होती है, अतः उनके पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके समान सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जाता है । तथा यह मार्गणा सान्तर है अतः इनमें अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय कम खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण भी बन जाता है। जघन्य कालमेंसे एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षासे किया है । तथा उद्वेलनाकी अपेक्षा इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है। वैक्रियिकमिश्रकाययोग मार्गणा सान्तर है, अतः इसमें भी लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों के समान सब कर्मोंकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिका काल जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इस मार्गणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है अतः इसमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होगा । तथा इसमें प्रत्येक जीवके नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल एक आवलिप्रमाण प्राप्त हा सकता है, अतः नाना जीवों की अपेक्षा यहां भी नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल ओघके समान पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जाता है। इसका विशेष खुलासा इसी प्रकरणमें एकेन्द्रियोंकी प्ररूपणाके समय कर आये हैं अत: वहांसे जान लेना चाहिये। उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि ये तीन मार्गणाएँ भी सान्तर हैं, अतः इनमें भी सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका काल वैक्रियिकमिश्रकाययोगके समान कहा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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