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________________ www गा० २२] हिदिविहन्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियंकालो ३६१ ६६५२. मणुसतिय० छव्वीसपयडी० उक्क० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु०। अणुक्क० सव्वद्धा । सम्म०-सम्मामि० उक्क० ज० [एगस०], उक्क० संखेज्जा समया । अणुक्क० सव्वद्धा । मणुसअपज्ज. सव्वपयडी० उक्क० ज० एगसमो, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। अणुक्क० ज० खुद्दाभवग्गहणं समयूणं, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। णवरि समत्त-सम्मामि० अणुक्क० ज० एगस० । एवं वेउब्वियमिस्स। णवरि छन्चीसपयडी. अणक्क० ज० अंतोमु० । णवणोक० उक्क० ओघं । एवमवपंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट स्थितिका काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है अतः इनके उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा। तथा इनमें अनुत्कृष्ट स्थितिका काल सर्वदा है यह स्पष्ट ही है, क्योंकि यह निरन्तर भार्गणा है, अत: इसमें सर्वदा अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीव पाये जाते हैं। सब एकेन्द्रिय आदि और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी यह व्यवस्था बन जाती है अतः उनके सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके जघन्य और उत्कृष्ट कालको पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके समान कहा । किन्तु जिन मार्गणाओंमें देव उत्पन्न हो सकते हैं उनमें नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्ट कालमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेके दूसरे समयमें ही मर कर देव एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हो सकते हैं और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति संक्रमणसे प्राप्त होती है जो बन्धावलीके बाद ही होता है। अब यदि एक एक आवलीके अन्तरालसे एक एकके क्रमसे श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण देव सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका एक एक आवलि तक निरन्तर बन्ध करें और उत्कृष्ट स्थिति बन्धके दूसरे समयमें वे मर कर उसी क्रमसे एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते जायं तो एकेन्द्रियोंमें नौ नोकषायोंका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है, क्योंकि ऐसे देवोंमें प्रत्येकके एक एक आवलितक नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति पाई जायगी। जिन मार्गणाओंमें नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका यह काल सम्भव है वे मार्गणाएं ये हैं-एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, जलकायिक बादर जलकायिक, बादर जलकायिक पर्याप्त, प्रत्येक वनस्पतिकायिक, प्रत्येक वनस्पतिकायिक पर्याप्त । किन्तु इतना विशेष जानना चाहिए कि अोघमें अन्तर्मुहूर्तको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणा करके पल्यका असंख्यातवां भाग काल प्राप्त किया गया था पर यहां आवलिको आवलिके असंख्यातवें भागसे गुणा करके पल्यका असंख्यातवां भाग काल प्राप्त करना चाहिये। ६६५२. सामान्य, पर्याप्त और मनुष्यनी इन तीन प्रकारके मनुष्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मह अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल सर्वदा है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्टस्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। तथा अनत्कृष्ट स्थि विभक्तिवाले जीवोंका काल सर्वदा है। मनष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रक्रतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवा जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय कम खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है । इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि छब्बीस प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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