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________________ गा० २२.] द्विदिविहत्तीए अंतरं ८६. जहण्णए पयदं । दुविहो णिदेसो-ओघेण-ओदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह. जहण्णाजहण्णहिदीणं णत्थि अंतरं । एवं विदियादि जाव छट्ठी पुढवी० सव्व पंचिंदियतिरिक्ख-सव्वमणुस्स-जोदिसियादि जाव सव्वह-सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-सव्वतस-पंचमण०-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि०-वेउव्विय-वेउव्वियमिस्स आहार-आहारमिस्स-इत्थि०-पुरिस०-णवंसय-अवगद०-चत्तारिकसाय-अकसाय-विहंग-आभिणि-सुद०-ओहि०-गणपज्जव०-संजद०-सामाइय०-छेदो०-परिहार-मुहुम० जहाक्खाद०-संजदासंजद-चक्षु०-अचक्खु०-ओहिदंसण-तिण्णिले-भवसि-सम्मादि०खइय०-वेदग०-उवसम-सासण-सम्मामि०-सण्णि-आहारि त्ति । तक या अन्तमुहूर्त कालतक उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध हुआ तो उसके अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त प्रमाण बन जाता है। अतः उक्त मार्गणाओंमें अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल ओघके समान कहा। यद्यपि काययोग और औदारिक काययोगका काल बहुत अधिक है पर यह काल एकेन्द्रिय और पृथिवीकायिक जीवोंके ही प्राप्त होता है अतः इनमें भी उत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल सम्भव नहीं। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति अन्तरानुगम समाप्त हुआ। ___८६. अब जघन्य स्थिति अन्तरानुगम प्रकृत है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थितियोंका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार दूसरी पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकी, सभी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, सभी मनुष्य, ज्योतिषी देवोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, सभी त्रस, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारक काययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, अपगतवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, अकषायी, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचतुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, तीन लेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके कहना चाहिये। विशेषार्थ–ोधसे मोहनीयकी जघन्य स्थिति क्षपक जीवके दसवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें होती है अतः ओघसे जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर काल नहीं बनता । इसी प्रकार मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी,पांचों वचनयोगी,काययोगी,औदारिककाययोगी,अपगतवेदी,लोभकषायी,आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ल लेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारकके जानना चाहिये, क्योंकि इनमें भी क्षपकका दसवाँ गुणस्थान पाया जाता है। दूसरे नरकसे छठे नरक तक नारकी, ज्योतिषी देवोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, वैक्रियिक काययोगी, वैक्रियिक मिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी अकषायी, परिहारविशुद्धि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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