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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ ६०. देसेण णिरयगईए मोह जहण्ण० णत्थि अंतरं । अज० जहण्णुक्क ० एगसमओ । एवं पढमपुढवि-देव-भवण० वाण०-कम्मइय- अणाहारिति । सत्तमा मोह० इ० जह० णत्थि अंतरं । अज० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । પૂર $६१. तिरिक्ख० मोह० जह०ज० अंतोमुहुत्तं, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अज० ज० एगसमश्र, उक्क ० अंतोमुहुतं । एवं मदि - सुदअण्णाण - असंजद ० - अभवसि ० संयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टिके अपने अपने उत्कृष्ट युके अन्तिम समयमें ही मोहनीयकी जघन्य स्थिति होती है अतः इनके जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं होता। सभी पंचेद्रियतिर्यंच, लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, और त्रस अपर्याप्तकोंके उत्पन्न होते समय ही जघन्य स्थिति होती है अतः इनके भी अन्तर नहीं होता । स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, क्रोध, मान और माया कषायवाले जीवोंके नौवें गुणस्थान में अपने अपने क्षयके अन्तिम समय में और सामायिक संयत व छेदोपस्थापनावाले जीवों के क्षपणाके नौवें गुणस्थानके अन्तिम समय में ही मोहनीयकी जघन्य स्थिति होती है अतः इनके भी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं होता । विभंगज्ञानमें उपरिम ग्रैवेयक के देवके आयुके अन्तिम समय में मोहनीयकी जघन्य स्थिति होती है, अतः अन्तर नहीं होता । पीत लेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले परिहारविशुद्धि संयत के समान जानना । ६०. आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका अन्तरकाल नहीं है । जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है । इसी प्रकार पहली पृथिवीके नारकी, सामान्य देव, भवनवासी देव, व्यन्तर देव, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये । सातवीं पृथिवीमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका अन्तरकाल नहीं है । तथा अज'घन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ जो असंज्ञी जीव नरकमें दो विग्रह से उत्पन्न होता है उसके दूसरे विग्रहके समय जघन्य स्थिति सम्भव है अतः सामान्यसे नारकियों के अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय कहा । क्योंकि ऐसे नारकीके प्रथम और तृतीयादि समयोंमें अजवन्य स्थिति हुई और दूसरे समय में जघन्य स्थिति रही, अतः अजघन्य स्थितिका अन्तरकाल एक समय प्राप्त हो गया । इसी प्रकार पहली पृथिवीके नारकी, सामान्य देव, भवनवासी, व्यन्तर, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंके अजघन्य स्थितिके जघन्य अन्तरकाल एक समयको घटित कर लेना चाहिये। सातवें नरकमें जब आयुमें अन्तर्मुहूर्तकाल शेष रह जाता है तब कमसे कम एक समय तक और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक जघन्य स्थितिका प्राप्त होना सम्भव 1 तथा इस नारकी इस जघन्य स्थिति के पश्चात् पुनः अजघन्य स्थिति हो जाती है, अतः यहां अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त बन जाता है । तथा जघन्य स्थिति दो बार नहीं प्राप्त होती इसलिये उसका अन्तरकाल नहीं बनता । ६१. तिर्यंचगति में मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोक है । तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अभव्य, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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