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________________ गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियसरिणयासो ४३७ कालविसेसेण च ऊणा होदि। एस वियप्पो पुणरुत्तो । तदो अण्णो जीवो वेदगपाओग्गमिच्छाहिदी पडिहग्गकालविसेसेणूणुक्कस्सहिदि बंधिय समयाहियसव्वजहण्णपडिहग्गकालमिच्छय सम्मत्त पडिवज्जिय मिच्छत्त' गंतूण मिच्छत्तु क्कस्सहिदीए पबद्धाए पुव्वुत्तसम्मत्तहिदी समयूणा होदि । एसो वियप्पो अपुणरुत्तो। एवं पुव्वं व दुसमयाहिय-तिसमयाहियादिकमेण पडिहग्गकालो वडावेयव्यो जाव जहण्णादो उक्कस्सओ संखेजगुणो त्ति । एवं वड्डाविय पुणो पुव्वविहाणेण जहण्णपडिहग्गद्धमुक्कस्सपडिहग्गद्धादो सोहिय सुद्धसेसेण दुगुणेणूणमिच्छत्तु क्कस्सहिदि बंधाविय अवहिदद्धाओ जहण्णाओ तिण्णि वि गमिय मिच्छत्तु कस्सहिदीए पबद्धाए पुणरुत्तो सण्णियासवियप्पो होदि । एदेण कमेण ओदारेदण णेदव्वं जाव णिब्धियप्पधुवहिदी पत्ता त्ति । पुणो पुव्वं व उव्वेन्लणमस्सिदूण णेदव्वं जाव सम्मत्तस्स एगा हिदी दुसमयकालपमाणा चेटिदा ति । एवमोदारिदे विदियपरूवणा समचा। ___७२०. संपहि तदियपरूवणा वुच्चदे । तं जहा-वेदगपाश्रोग्गमिच्छादिहिणा बंधुक्कस्सहिदिणा सव्वजहण्णपडिहग्ग-सम्मत्त-मिच्छत्तद्धणुक्कस्सहिदीए पबद्धाए पुणरुत्तवियप्पो होदि, तिण्हं पि अद्धाणं जहण्णभावुवलंभादो । अपुणरुत्तवियप्पे इच्छिज्ज जीव प्रतिभग्नकाल विशेषसे कम मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बांधकर और मिथ्यात्वसेच्युत हानके एक समय अधिक सबसे जघन्य प्रतिभग्न काल तक मिथ्यात्वमें रह कर सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। तथा पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त करके उस जीवके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति के बन्ध होने पर पूर्वोक्त सम्यक्त्वकी स्थिति एक समय कम होती है। यह सन्निकर्षविकल्प अपुनरुक्त है। इसी प्रकार पहलेके समान दो समय अधिक और तीन समय अधिक इत्यादि क्रमसे मिथ्यात्वसे निवृत्त होनेका काल तब तक बढ़ाते जाना चाहिये जब तक जघन्य कालसे उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा प्राप्त होवे । इस प्रकार पुनः मिथ्यात्वसे निवृत्त होनेके कालको बढ़ाकर पुनः पूर्वविधानानुसार मिथ्यात्वसे निवृत्त होनेके जघन्य कालको मिथ्यात्वसे निवृत्त होनेके उत्कृष्ट कालमेंसे घटाकर जो काल शेष रहे उसके दूने कालसे कम मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कराके और तीनों ही जघन्य अवस्थित कालोंको बिता कर मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्ध होने पर सन्निकर्षका पुनरुक्त विकल्प प्राप्त होता है। आगे इसी क्रमसे निर्विकल्प ध्रुवस्थितिके प्राप्त होने तक सम्यक्त्वकी स्थितिको घटाते हुए ले जाना चाहिए। तदनन्तर पहले के समान उद्वेलनाका आश्रय लेकर सम्यक्त्वकी दो समय कालप्रमाण एक स्थितिके प्राप्त होने तक उसकी स्थिति घटाते जाना चाहिए। इस प्रकार सम्यक्त्वकी स्थिति घटाने पर दूसरी प्ररूपणा समाप्त हुई। ७२०. अब तीसरी प्ररूपणाको कहते हैं जो इस प्रकार है-जिसने मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधा है ऐसा वेदकसम्यक्त्तके योग्य मिथ्यादृष्टि जीव पुनः मिथ्यात्वसे च्युत होनेके सबसे जघन्य प्रतिभग्न कालके साथ तथा सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके सबसे जघन्य कालोंके साथ जब मिथ्यात्वको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है तब उसके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धके समय सन्निकर्षका पुनरुक्त विकल्प होता है, क्योंकि यहां पर तीनों ही काल जघन्य पाये जाते हैं। अब अपुनरुक्त विकल्प इच्छित होने पर उसे इस विधिसे लाना चाहिये जो इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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