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जयधबलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहती ३ अंतोमुहुत्त जीवियमत्थि त्ति मिच्छत्तं गदो जावदि सका ताव संतकम्मस्स हेट्टा बंधिय से काले समद्विदि बंधिय बोलेहदि त्ति तस्स जहण्णयं टिदिसंतकम्मं ।
३५. तिरिक्खगइ० मोह० जह• कस्स ? अण्णदरस्स जो एइंदिओ हदसमुपत्तियं काऊण जाव सक्का ताव संतकम्मस्स हेहा बंधिय से काले समहिदि बोलेहदि त्ति तस्स जहण्णयं हिदिसंतकम्मं । एवं सव्वएइंदिय-पंचकाय०-ओरालियमिस्सकम्मइय-मदिसुदअण्णाण-असंजद-तिष्णि लेस्सा-अभव्य-मिच्छादि०-असप्णिअणाहारि त्ति ।
३६. पंचिंदियतिरिक्खतियम्मि मोह० जह० कस्स ? जो एइंदियपच्छायदो हिदीए कयहदसमुप्पत्तिो पढमविदियविग्गहे वट्टमाणो तस्स जहण्णयं हिदिसंतकम्मं । एवं पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज०-मणुसअपज्ज०-सव्वविगलिंदिय-पंचिं०अपज-तस अपज्जते त्ति वत्तव्वं । णवरि विगलिंदिएमु सत्थाणे वि सामित्तमविरुद्धं दहव्वं ।
$ ३७. सोहम्मीसाणादि जाव सव्वह० मोह० जह• ? अण्णद० दो बारे प्राप्त किया है, पुनः अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करके वहां रहा और जब जीवनमें अन्तमुहूर्त काल शेष रह जाय तब मिथ्यात्वको प्राप्त होकर जहां तक शक्य हो वहां तक सत्तामें स्थित मोहनीय कर्मकी स्थितिसे कम स्थितिवाले कर्मका बन्ध करके तदनन्तर कालमें जो सत्तामें स्थित मोहनीय कर्मकी स्थितिके समान स्थितिवाले कर्मका बन्ध करेगा उसके मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व होता है।
६३५. तिथंचगतिमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति किसके होती है ? जो कोई एकेन्द्रिय जीव हतसमुत्पतिकको करके जब तक शक्य हो तब तक सत्तामें स्थित मोहनीयकी स्थितिसे कम स्थितिवाले कमेंका बन्ध करके तदनन्तर कालमें सत्तामें स्थित मोहनीयकी स्थितिके समान स्थि स्थतिवाले कर्मका बन्ध करेगा उसके मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व होता है। इसी प्रकार सभी एकेन्द्रिय, पांचों स्थावरकाय, औदारिकमिश्र काययोगी, कार्मण काययोगी.मत्यज्ञानी. ताज्ञानी. असंयत. कृष्ण आदि तीन
लेश्यावाले. अभव्य, मिथ्याष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। $ ३६. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त और योनिनी इन तीन प्रकारके तिर्यंचोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति किसके होती है ? जो एकेन्द्रियोंमेंसे लौटकर आया है, जिसने स्थितिका हतसमुत्पत्तिक किया है और जो पहले या दूसरे विग्रहमें स्थित है उस पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त या योनिनी तिर्यंचके मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व होता है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तक, मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तक, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्भ्यपर्याप्तक और त्रसं लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि विकलेन्द्रिय जीवोंमें स्वस्थानकी अपेक्षा भी स्वामित्वके कथन करनेमें कोई विरोध नहीं आता। अर्थात् जो विकलेन्द्रियोंमेंसे भी विकलेन्द्रियोंमें लौटकर आया है उसके भी जघन्य स्थितिसत्त्व हो सकता है।
३७. सौधर्म और ऐशान स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मोहनीयकी जघन्य
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