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________________ १५४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ हिदिविहत्ती ३ २७८. पंचिंदिय-पंचि०पज० असंखे भागवडी० अवडि• अंतरं के ? जह• एगसमओ, उक्क० तेबहिसागरोवमसदं अंतोमुहुत्तभहियतीहि पलिदोवमेहि सादिरेयं । असंखे० भागहाणि० अंतरं ज० एगसम०, उक्क० अंतोमु० । दोवड्ढी-दोहाणीणं ज० अंतोमु०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं सादिरेयं । असंखे०गुणहाणी• जहण्णुक्क० अंतोम० । एवं तस-तसपज्जत्ताणं । णवरि दो वड्ढी० जह० एगसमओ। भागप्रमाण बतलाया सो इतने काल तक असंख्यात भागहानि उन एकेन्द्रियोंके पाई जाती है जिनकी स्थिति एकेन्द्रियोंकी उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे बहुत ही अधिक होती है और इसलिये ऐसे जीवके असंख्यात भागवृद्धि, या अवस्थित या इनका अन्तरकाल यह कुछ भी सम्भव नहीं। किन्तु असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यातं भागहानि या अवस्थितविभक्तिका अन्तर काल उन एकेन्द्रियोंके पाया जाता है जिनका स्थितिसत्त्व एकेन्द्रियोंके स्थितिबन्धके योग्य रह जाता है और इस प्रकार इनका जघन्य अन्तरकाल एक समय तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त प्रमाण बन जाता है। तथा जिस संज्ञी पंचेन्द्रियने संख्यात भागहानि या संख्यात गुणहानिका प्रारम्भ किया है वह यदि स्थितिकाण्डकके उत्कीरण कालको समाप्त करनेके पहले मरकर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हो जाय तो उस एकेन्द्रिय जीवके संख्यात भागहानि या संख्यात गुणहानि पाई जाती है अतः एकेन्द्रियके इनका अन्तरकाल नहीं प्राप्त होता। विकलत्रयोंमें संख्यात भागवृद्धि भी सम्भव है अतः इनके अपने स्थितिबन्धके योग्य स्थितिके रहते हुए भी संख्यात भागहानि हो सकती है पर इस प्रकार संख्यात भागवृद्धि और संख्यात भागहानि अन्तर्मुहूर्तके पहले नहीं होती, अतः इनका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त कहा । शेष कथन सुगम है। २७८. पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंमें असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थितविभक्तिका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुंहूते और तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठ सागर है। असंख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। दो वृद्धियों और दो हानियोंका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एकसौ त्रेसठ सागर है । तथा असंख्यात गुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार त्रस और त्रस पर्याप्तक जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके दो वृद्धियोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है। विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवके संख्यात भागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि, संख्यात भागहानि और संख्यात गुणहानिका जो उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एकसौ ब्रेसठ सागर बतलाया है सो यहां दोनों वृद्धियों और संख्यात गुणहानिके अन्तरकालका कथन करते समय साधिकसे तीन पल्य और अन्तर्मुहूर्त कालका ग्रहण करना चाहिये तथा संख्यात भागहानिके अन्तरकालका कथन करते समय साधिकसे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि पहले असंख्यात भागहानिका जो पल्यका असंख्यातवां भाग अधिक एकसौ त्रेसठ सागर प्रमाण उत्कृष्ट काल बतला आये हैं वह यहां संख्यात भागहानिका उत्कृष्ट अन्तर काल है और जो अल्पतर स्थितिका अन्तमुहूर्त और तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठ सागरप्रमाण उत्कृष्ट काल बतला आये हैं वह यहां संख्यात भागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि और संख्यात गुणहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल है। तथा उक्त जीवोंके उक्त दो वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य अन्तरकाल जो अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बतलाया है सो इसका कारण यह है कि स्वस्थानकी अपेक्षा उक्त स्थिति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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