________________
४७२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविहत्ती ३ ७८३. कुदो ? इत्थिवेदेण सह णवुसयवेदस्स बंधाभावादो। तेण पडिहग्गपढमसमए बज्झमाणित्थिवेदम्मि बंधावलियादीदकसायुक्कस्सहिदीए संकंताए इत्थिवेदस्स उकस्सहिदी होदि णवु सयवेदस्स पुण णियमेण समयणुक्कस्सहिदी । एत्तो उवरि जाव प्रावलियमेत्तद्धाणं गच्छदि तावित्थिवेदो उक्कस्सो चेव । णवरि णवुसयवेदुकस्सहिदी आवलियूणा होदि । एवमुवरि अरदि-सोगोयरणविहाणं बुद्धीए काऊण ओदारेयव्वं ।
9 भय दुगुछाणं हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणुकस्सा ? ६७८४. सुगमं ।
णियमा उक्कस्सा।
$ ७८५. जम्मि काले इथिवेदो बज्झदि तम्मि काले भय-दुगुछाणं बंधो णियमा अत्थि; धुवबंधित्तादो । तेणित्थिवेदस्स उक्कस्सहिदीए संतीए भय-दुगुंठाओ हिदि पडुच्च णियमा उक्कस्साओ त्ति भणिदं ।
® जहा इत्थिवेदेण तहा सेसेहि कम्मेहि।
$ ७८६. जहा इत्थिवेदुक्कस्सहिदीए णिरुद्धाए सेसकम्मेहि सण्णियासो कदो तहा हस्स-रदि-पुरिसवेदाणमुक्कस्सहिदिणिरु'भणं कादण सण्णियासो वत्तव्यो
६७८३. क्योंकि स्त्रीवेदके साथ नपुंसकवेदका वन्ध नहीं होता है । अतः प्रतिभग्न कालके प्रथम समयमें बंधनेवाले स्त्रीवेदमें बन्धावलिसे रहित कयायकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रान्त होने पर स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थिति होती है परन्तु उस समय नपुंसकवेदकी नियमसे एक समय कम उत्कृष्ट स्थिति होती है । इसके आगे एक श्रावलिकाल व्यतीत होने तक स्त्रीवेद उत्कृष्ट ही रहता है परन्तु नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थिति उस समय एक वलि कम होती है। इसी प्रकार आगे अरति और शोककी स्थितिके घटानेकी विधिको बुद्धिसे विचार कर उसी प्रकार नपुंसकवेदकी स्थितिको घटाना चाहिये।
___* स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके समय भय और जुगुप्साकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ?
६७८४. यह सूत्र सुगम है । * नियमसे उत्कृष्ट होती है।
६७८५. जिस काल में स्त्रीवेदका बन्ध होता है उस कालमें भय और जुगुप्साका बन्ध नियमसे होता है, क्योंकि ये दोनों प्रकृतियां ध्रुवबन्धिनी हैं। अतः स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थिति के होने पर भय और जुगुप्साकी स्थिति नियमसे उत्कृष्ट होती है । यह इस सूत्रका तात्पर्य है।
* जिस प्रकार स्त्रीवेदके साथ सन्निकर्षके विकल्प कहे हैं उसी प्रकार शेष कर्मोंके साथ जानने चाहिये ।
६७८६. जिस प्रकार स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके सद्भावमें शेष कर्मों के साथ सन्निकर्ष कहा है उसी प्रकार हास्य, रति और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका सद्भाव करके सन्निकर्ष कहना
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org