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________________ ११८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [द्विदिविहत्ती ३ भुज० अप्पद अवहि० खेत्तभंगो। एवं तिरिक्ख०–णवगेवज्जादि जाव सबढ०सव्वएइंदिय-पुढवि -[ बादरपुढवि० ] बादरपुढवि० अपज्ज०-सुहुमपुढवि०-सुहुमपुढवि०पज्जत्तापज्जत्त-आउ०-बादराउ०-बादरआउअपज्ज०-सुहुमआउ०-सुहुमआउपज्जत्तापज्जत्त-तेउ०-बादरतेउ०-बादरतेउअपज्ज०-सुहुमतेउ०-सुहमतेउपज्जत्तापज्जत्त-चाउ०-बादरवाउ०-बादरवाउअपज्ज ०-सुहुमवाउ०-सुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्तबादरवणप्फदिपत्रेय० - बादरवणप्फदिपत्रेयअपज्ज० -- कायजोगि० - ओरालि. - ओरालियमिस्स०-वेउत्रियमिस्स -आहार-आहारमिस्स-कम्मइय-णवंस०-अवगद०चत्तारिकसाय-अकसा-मदिसुदअण्णाण-मणपज - संजद-समाइयच्छेदो०-परिहार०सुहुम०-जहाक्खाद०-असंजद०-अचक्खु०-तिण्णिले०-भवसि०-अभवसि०-मिच्छादि०असण्णि०-आहारि०-अणाहारि ति ।। २०७. आदेसेण णिरय० भुज० अप्पद० अवहि० केव० खे० पो० ? लोग० असंखे०भागो छ चोदसभागा वा देसूणा । पढमपुढवि० खेत्तभंगो । विदियादि जाव सत्तमि त्ति भुज० अप्पद० अवहि० के० खेनं पोसिदं ? लोग० असंखे० मागो एक्क बे तिण्णि चत्तारि पंच छ चोदस भागा वा देसूणा । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार सामान्य तियंच, नौ ग्रैवेयकसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देव, सभी एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादरपृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्मपृथिवीकायिक, . सूक्ष्मपृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक, बादरजलकायिक, बादरजलकायिक अपर्याप्त,सूक्ष्म जलकायिक,सूक्ष्मजलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्मजलकायिक अपर्याप्त,अग्निकायिक, बादरअग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्मअग्निकायिक, सूक्ष्मअग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्मअग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादरवायुकायिक, बादरवायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्मवायुकायिक, सूक्ष्मवायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्मवायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्त,काययोगी,औदारिककाययोगी,औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककायोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी,अपगतवेदी, क्रोधादि चारो कषायवाले,अकषायी, मत्यज्ञानी,श्रुताज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी,संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत,परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत,यथाख्यातसंयत, असंयत, अचक्षदशेनी, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। तात्पर्य यह है कि उक्त मार्गणाओंमें जिसका जितना क्षेत्र बतला आये हैं उसका उतना स्पर्शन भी जानना चाहिये । २०७. आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। पहली पृथिवीमें स्पर्शन क्षेत्र के समान है। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक प्रत्येक नरकमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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