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________________ द्विदिवत्तीए उत्तरपयडिठ्ठिदिश्रद्धाच्छेदो गा० २२ ] संभाल परूविदमेदं । * मिच्छत्त-सम्मामिच्छन्त- बारसकसायाणं जहण्णडिदिविहत्ती एगा हिदी दुसमयका लडिदिया । ९ ३७१. कुदो ? असंजदसम्मादिद्विप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदो त्ति एदे दंसणमोहवणार पाओग्मा । एदेसिं चदुण्हं गुलडाणाणमण्णदरेण पुव्वमेव खविदअनंताणुबंधिचक्केण दंसणमोहक्खवणाए अन्भुडिदेण अधापवत्तकरणद्धाए अतगुणाए विसीही वडिमुवगण अपसत्थाणं कम्माणं समांतरादीदअणुभागबंधं पहुच बद्धअनंतगुणहीणाणुभागेण पसत्थाणं कम्माणमणंतरादीद अणुभागबंधादो बद्धअनंतगुणाणुभागेण द्विदिणुभागखंडयघादविवज्जिएण दंसणमोहणीयक्खवणाए गुणसेढिपदेसणिज्जरुम्मुक्केण अपुव्वकरणद्धाए पढमसमए आढत्तद्विदिअणुभागखंडयघादेण तत्थेवाढत्तपदेसगुणसेढिणिज्जरेण बंधविरहिद अप्पसत्थमिच्छत्त-सम्मामिच्छत्ताणमाढत्तगुण संकमेण अपुत्रकरणद्धार संखेज्जसहस्सद्विदिकंडयाणि हिदिकंडएहिंतो संखेज्जगुण | णुभागकंडयाणि च पाडिय संखेज्जसहस्सट्ठिदिबंधोसरणाहि ओसरिय गुणसेढिणिज्जराए कम्मक्खंधे गालिय अणियट्टिकरणं पविण तत्थ वि अणियट्टिश्रद्धाए द्विदिकंडयअणुभागयह सूत्र मन्दबुद्धि जनों के सम्हालनेके लिये कहा है । * मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी एक स्थिति जघन्य स्थितिविभक्ति होती हैं, जिसका स्थितिकाल दो समय है । ९ ३७१. शंका उक्त मिथ्यात्वादि कर्मोंकी दो समय कालवाली एक स्थिति जघन्य स्थितिविभक्ति क्यों होती है ? समाधान-असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक ये चार गुणस्थानवर्ती जीव दर्शन मोहनीयकी क्षपणा के योग्य होते हैं । इनमें से पहले जिसने अनन्तानुबन्धी चतुष्कका क्षय कर दिया है ऐसा इन चार गुणस्थानों में रहनेवाला कोई एक जीत्र जब दर्शनमोहनीयकी क्षपणा के लिये उद्यत होता है तब वह अधःप्रवृत्त करण के काल में अनन्तगुणी विशुद्धि के द्वारा वृद्धिको प्राप्त होता हुआ अप्रशस्त कर्मों के अनुभागको अपने पूर्वसमयवर्ती अनुभागबन्धकी अपेक्षा अनन्तगुणा हीन बाँधता है और प्रशस्त कमों के अनुभागको अपने पूर्व समयवर्ती अनुभागबन्धकी अपेक्षा अनन्तअधिक है । पर इसके यहाँ स्थितिकाण्डकघात और अनुभाग काण्डकघात नहीं हाते हैं और न दर्शनमोहनीयकी क्षपणा में होनेवाली गुणश्रेणी क्रम से कर्मप्रदेशोंकी निर्जरा ही होती है । तथा जब वह अपूर्वकरणको प्राप्त होता है तब वह उसके पहले समय में ही स्थितिकाण्डकघात और अनुभाग काण्डकघातका आरम्भ कर देता है । तथा यहींसे कर्मप्रदेशोंकी गुणश्रेणी निर्जरा चालू हो जाती है और जिनका बन्ध नहीं होता ऐसे मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दो अप्रशस्त कर्मोंका गुणसंक्रम प्रारम्भ हो जाता है। तथा इस जीवके अपूर्वकरण कालमें संख्यात हजार स्थितिकाण्डकघात और स्थितिकाण्डकघातों से संख्यातगुणे अनुभागकाण्डकघात हाते हैं तथा संख्यात हजार स्थितिबन्धापसरण होते हैं । इस प्रकार यह जीव गुणश्र ेणी निर्जरा के द्वारा कर्मकों का नाश करता हुआ अनिवृत्तिकरण में प्रवेश करता है । वहाँ अनिवृत्तिकरण के Jain Education International २०३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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