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________________ २०० जयपवलासहिदे कसायपाहुडे [विदिविहत्ती ३ * एत्तो जहण्णयं। $ ३७०. एदम्हादो उवरि जहण्णयमद्धाच्छेदं वत्तइस्सामो ति मंदमेहाविजण चालीस कोड़ाकोड़ी सागर उत्कृष्ट स्थिति बन जाती है। किन्तु एकेन्द्रियसे लेकर बादर वनस्पति प्रत्येक शरीर पर्याप्त तक मार्गणाओंमें और असंज्ञी मार्गणामें देव पर्यायसे च्युत हुए जीवको उत्पन्न कराकर उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये । औदारिक मिश्रकाययोगमें देव और नारक पर्यायसे च्युत हुए जीव को उसन्न कराकर उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये। वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें मनुष्य और तिर्यंच पर्यायसे च्युत हुए जीवको नरकमें उत्पन्न कराकर उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये । कार्मणकाययोग और अनाहारकमें उत्कृष्ट स्थिति कहते समय चारों गतिसे मरे हुए जीवको तियेच और नारकियोंमें उत्पन्न कराकर उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये । तथा इतनी और विशेषता है कि इन सब मार्गणाओंमें भवके पहले समयमें ही उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व होगा। तथा एकेन्द्रियसे लेकर बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक पर्याप्तक तक उपर्युक्त मार्गणाओंमें और असंज्ञी मार्गणामें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उकृष्ट स्थितिसत्त्व इस प्रकार घटित कर लेना चाहिये कि भवनत्रिक व सौधर्म कल्पतक के किसी एक जीवने मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके अन्तर्मुहूर्त कालके पश्चात् वेदक सम्यक्त्व प्राप्त किया । पुनः अति लघु कालके द्वारा वह मिथ्यात्वमें गया और वहां अन्तर्मुहूर्त काल तक रह कर सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्वका स्थिति काण्डकघात किये बिना एकेन्द्रियादिक उक्त मार्गणाओंमें से किसी एकमें उत्पन्न हो गया तो उसके उत्पन्न होनेके पहले समय में सम्यकत्व और सम्यग्मिथ्यात्त्वका उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व प्राप्त होता है। इसी प्रकार औदारिकमिश्रकाययोगमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिसत्व कहना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि देव और नारक पर्यायसे वेदकसम्यकत्वके साथ आकर जो औदारिकमिश्रकाययोगी होता है उसके ही भवके पहले समयमें सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिसत्व होता है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व कहते समय मनुष्य और तिर्यंच पर्यायसे नारकियोंमें उत्पन्न कराकर भवके पहले समयमें ही कहना चाहिये। किन्तु ऐसे जीवको तिर्यंच और मनुष्य पर्यायमें रहते हुए वेदकसम्यक्त्व उत्पन्न कराकर मिथ्यात्वमें ले जाना चाहिये और तब नरकमें वैक्रियिकमिश्रकाययोगके साथ उत्पन्न कराना चाहिये । तथा कार्मणकाययोग और अनाहारक मार्गणामें सम्यक्त्व और सम्मग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व औदारिकमिश्रकाययोगके समान घटित कर कहना चाहिये । तथा नौ नोकषायों का उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व मिथ्यात्व और सोलह कषायोंके उत्कृष्ट स्थितिसत्त्वके समान घटित करके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि नौ नोकषायोंका उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व उस मार्गणा में भवके पहले समयसे लेकर एक आवलिकाल तक प्राप्त हो सकता है; क्योंकि जिस जीवने सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति बांधकर एक श्रावलि कालके पश्चात मरण किया उसके भवके पहले समयमें नौ नोकषायोंका उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व प्राप्त होगा और जो दूसरे समयमें मर गया उसके एक श्रावलिकाल के पश्चात् उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व प्राप्त होगा। इसीप्रकार एक समयसे लेकर आवलितकके मध्यम विकल्प जानने चाहिये। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिअच्छाच्छेद समाप्त हुआ। * इसके आगे जघन्य स्थिति अद्धाच्छेदको बतलाते हैं । ६३७०. इस उत्कृष्ट स्थितिअद्धाच्छेदके आगे जघन्य स्थिति अद्धाच्छेदको बतलाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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