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________________ गा० २२ ] द्विदिविहत्तीए वड्ढीए अंतरं १८२ $३२६, आदेसेण णिरयगईए असंखे० भागहाणी - अवडि० णत्थि अंतरं । सेस पदार्थं केव० ? ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । एवं सत्तसु पुढवीसु पंचिदियतिरिक्ख पंचि ० तिर० पज्ज० - पंचिं ० तिर० जोगिणी- पंचिं० तिरि० अपज्ज० - देव० - भवणादि जाव सहस्सार ० - पंचिं ० अपज्ज० तस पज्ज० - वे उब्वि० - विभंग० ते ० - पम्मलेस्से ति । ९ ३३०. तिरिक्खा० ओघं । णवरि संखेज्जगुणहाणी णत्थि । एवमोरालियमिस्स० - कम्मइय० - मदि - सुदण्णा० - असंजद० - किण्ह - णील- काउ ० - अभव० - मिच्छा ०असणि० - रणाहारि त्ति । 0 $३३१. मणुस ० रिओघं । णवरि असंखे० गुणहाणी० श्रोषं । एवं पंचिंदिय- पंचिं ० पज्ज० - तस-तसपज्ज० - पंचमण ० - पंचवचि० - इत्थि० - पुरिस० चक्खु०सणिति । मणुसपञ्ज० - मणुसिणी० एवं चेव । वरि इत्थि० - मणुस्सिरणी ० संखेज्जगुणहाणी • वासपुधतं । पुरिसवेद० वासं सादिरेयं । अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना प्रमाण कहा । काययोगी आदि कुछ ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें यह ओघ प्ररूपणा बन जाती है, अतः उनके कथनको ओघके समान कहा । किन्तु इतनी विशेषता है कि यदि नपुंसकवेदी जीव क्षपकश्रेणी पर न चढ़े तो अधिक से अधिक वर्षपृथक्त्व काल तक नहीं चढ़ता है अतः इसके असंख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्ष पृथक्त्व प्रमाण कहा । तथा क्रोधादि कषायवाले जीव यदि क्षपकश्रेणी पर न चढ़ें तो अधिक से अधिकाधिक एक वर्ष तक नहीं चढ़ते हैं, अतः इनके असंख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एक वर्ष प्रमाण कहा । ९ ३२६. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नरकगति में असंख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्ति वाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। तथा इनके शेष पदोंकी अपेक्षा अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार सातों पृथिवियों के नारकी, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त, पंचेन्द्रियतिर्यंच योनिमती, पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देव, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, त्रस अपर्याप्त, वैक्रियिककाययोगी. विभंगज्ञानी, पीतलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिये । ९ ३३०. तिर्यंचों के अन्तरकाल ओघ के समान जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यातगुणहानि नहीं होती है । इसी प्रकार औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मरणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नील वेश्यावाले कापोतलेश्यावाले, अभव्य, मिध्यादृष्टि, संज्ञी और अनाहारक जीवोंके 'जानना चाहिये । ९ ३३१. मनुष्यों में अन्तरकाल सामान्य नारकियोंके समान जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके असंतगुणहानिकी अपेक्षा अन्तरकाल ओघ के समान है । इसी प्रकार पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, चतुदर्शनवाले और संज्ञी जीवों के जानना चाहिये । मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनीके भी इसी प्रकार जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदवाले और मनुष्यनीके असंख्यातगुणहानिकी अपेक्षा अन्तरकाल वर्षपथक्त्व है । तथा पुरुषवेदवाले जीवोंके साधिक एक वर्ष है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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