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________________ artimeir - for-ww. गा० २२] ___ द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिश्रद्धाच्छेदो . २१७ ३९०. तिरिक्वेसु मिच्छत्त-बारसकसाय-णवणोकसायाणं जहण्णहिदिअद्धाछेदो सागरोवमस्स[सत्त] सत्तभागा चत्तारि सत्तभागा पलिदो० असंखे०भागेण ऊणया । सम्मत्त-सम्मामि० अणंताणुबंधिचउकाणमोघं । पंचिंतिरिक्ख-पंचिंतिरि०पज्ज०पंचिंतिरिक्वजोणिणीसु मिच्छत्त-बारसकसाय-भय-दुगंछाणं जहण्ण. सागरीवमसहस्सस्स सत्त सत्तभागा चत्तारि सत्तभागा वे सत्तभागा पलिदो० संखे०भागण ऊणया । सत्तणोकसायाणं सागरोवमस्स चत्तारि सनभागा पलिदो० असंखे०भागेण पडिवक्वबंधगद्धाहियऊणया । सेसं तिरिक्खोघं । णवरि जोणिणीसु सम्मत्त० सम्मामिच्छत्तभंगो। पंचिंतिरि०अपज पंचिं०तिरि०जोणिणीभंगो। णवरि अणंताणु०४ बारसक०भंगो। रहा । इस प्रकार अपनी आयुके अन्तिम समयमें उसके मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति होगी। इसी प्रकार स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी जघन्यस्थिति कहनी चाहिये, क्योंकि सम्यग्दृष्टिके इन दोनों वेदोंका बन्ध नहीं होता, अतः इनकी उक्त प्रकारसे जघन्य स्थिति बन जाती है। तथा इनके सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थिति दो समय होती है जिसका खुलासा भवनवासियोंके इनकी जघन्यस्थिति कहते समय कर आये हैं। तथा सातवें नरकमें जो विशेषता है उसका खुलासा मूलमें ही कर दिया है।। ३६०. तियेचोंमें मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिअद्धाच्छेद एक सागरके सात भागों से पल्योपमके असंख्यातवें भागसे न्यून सात भागप्रमाण है । बारह कषाय और नौ नोकषायोंका एक सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमके संख्यातवें भागसे न्यून चार भागप्रमाण है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुवन्धी चतुष्कका जघन्य स्थितिकाल ओघके समान है। पंचेन्द्रियतियंच पंचेन्द्रियतियंचपर्याप्त और पंचेन्द्रियतिथंच योनिमती जीवोंमें मिथ्यात्वका जघन्यस्थिति सत्त्वकाल एक हजार सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमके संख्यातवें भागसे न्यून सात भागप्रमाण है । बारह कषायोंका जघन्यस्थिति सत्त्वकाल एक हजार सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमके संख्यातवें भागसे न्यून चार भागप्रमाण है और भय तथा जुगुप्साका जघन्यस्थिति सत्त्वकाल एक हजार सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमके संख्यातवें भागसे न्यून दो भागप्रमाण है। सात नोकषायोंका जघन्यस्थिति सत्त्वकाल एक सागरके सात भागोंमेंसे अपनी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धकालसे और पल्यके असंख्यातवें भागसेन्यन चार भागप्रमाण है। शेष कथन सामान्य तियंचोंके समान है। इतनी विशेषता है कि योनिमती तिर्यंचोंमें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। पंचेन्द्रियतियच अपर्याप्तकोंमें पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतीके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्कक्रा भंग बारह कषायोंके समान है। विशेषार्थ-तिर्यंचोंमें एकेन्द्रिय भी सम्मिलित हैं, अतः एकेन्द्रियोंकी जो जघन्य स्थिति है वही यहाँ मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी सामन्य तिर्यंचोंके जघन्यस्थिति जाननी चाहिये, किन्तु अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त ही करता है, अतः अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थिति ओघके समान दो समय जानना। सम्यक्त्व की जघन्यस्थिति कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके समान एक समय जानना । किस कर्मकी कितनी जघन्य स्थिति है यह मूल में बतलाया ही है । पंचेन्द्रियतिथंच, पंचेन्द्रियतियच पर्याप्त और पंचेन्द्रियतियच योनिमती जीवोंके मिथ्यात्व और बारह कषायकी जघन्य स्थिति असंझियोंकी जघन्य स्थितिके २८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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