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________________ १६६ wwwraamwarrrrr गा• २२.] हिदिविहत्तीए षड्ढीए पोसणं पज्ज० असंखे०भागवडी हाणी अवहि० लोगस्स संखोज्जदिभागे । एवं खत्ताणुगमो समत्तो । ३०८. पोसणाणुगमेण दुविहो णि सो–ोघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण असंखेजभागवडी-हाणी-अवहि केवडियं खेनं पोसिदं ? सव्वलोगो। दोवड्डीदोहाणी० के० खे० पो० ? लोग० असंखे भागो अह-चोदसभागा देसूणा सव्वलोगो वा । असंखेजगुणहाणी० के० खे० पो० १ लोग० असंखे०भागो। एवं कायजोगि०-चत्तारिकसा०-अचक्खु०-भवसि०-आहारि त्ति । लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं । इतनी विशेषता है कि बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंमें असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंका क्षेत्र लोकका संख्यातवां भाग है। _ विशेषार्थ-ओघसे असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित स्थितिवाले जीव अनन्त हैं यह परिमाणानुयोगद्वारमें बतला ही आये हैं और अनन्त संख्यावाली राशियों का स्वस्थानकी अपेक्षा भी सब लोक क्षेत्र बन जाता है, अतः इन तीन पदवाले जीवोंका ओघसे सब लोक क्षेत्र कहा । किन्तु शेष पांच पदवाले जीव बहुत स्वल्प हैं, क्योंकि उन पदोंका अधिकतर त्रसोंसे ही सम्बन्ध है। दो हानियां ऐसी हैं जो स्थावरोंके भी पाई जाती हैं पर जो त्रस स्थितिकाण्डकघातके द्वारा संख्यात भागहानि और संख्यात गुणहानिको कर रहे हैं ऐसे त्रस यदि मर कर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हों तो उन स्थावरोंके ही वे दो हानियां पाई जाती हैं, अतः शेष पदवालोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही बनता है। जितनी भी अनन्त संख्यावाली मार्गणाएं हैं उनमें भी अपने अपने सम्भव पदोंकी अपेक्षा इसी प्रकार क्षेत्र जानना चाहिये । तथा सामान्य पृथिवीकायिक आदि कुछ असंख्यात संख्यावाली ऐसी मार्गणाएं हैं जिनका सब लोक क्षेत्र बन जाता है अतः उनमें भी अपने सम्भव पदोंकी अपेक्षा अविकल ओघ प्ररूपणा घटित हो जाती है । पर इनसे अतिरिक्त जितनी भी असंख्यात या संख्यात संख्यावाली मार्गणाएं हैं उनमें सभी सम्भव पदोंकी अपेक्षा क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है, क्योंकि उन मार्गणावाले जीवोंका क्षेत्र ही लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। किन्तु वायुकायिक पर्याप्त जीव इस व्यवस्थाके अपवादभूत हैं, क्योंकि उनका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है अतः उनमें असंख्यात भागहानि, असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थित स्थितिवालोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण जानना और शेष पदोंकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र जानना। इस प्रकार क्षेत्रानुगम समाप्त हुआ। ६३०८. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? सर्वलोकका स्पर्श किया है। दो वृद्धि और दो हानिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका, जसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका और सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। असंख्यातगुणहानिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । इसी प्रकार काययोगी, क्रोधादि चारों कषायवाले, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिये। २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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