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________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwwww जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ ६५६१. पंचिंदियतिरिक्व-पंचिंतिरि०पज्ज०-पंचि०तिरि०जोणिणीसु मिच्छत्तबारसक०-भय-दुगुंछ० जह० णत्थि अंतरं । अज. जहण्णुक एयस० । सम्म० जह० पत्थि अंतरं । अज० जह० एयस०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पुवकोडिपुधत्तेणसम्यक्त्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण बतला आये हैं उसी प्रकार यहां उसकी अजघन्य स्थितिका अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिये। किसी एक तियेचने उद्वेलनाके अन्तिम समयमें सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिको प्राप्त किया। पुनः वह दूसरे समयमें उपशमसम्यग्दृष्टि हो गया तो उसे मिथ्यात्वमें जाकर उद्वेलनाके द्वारा पुनः सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिको प्राप्त करनेमें पल्यका असंख्यातवां भाग प्रमाण काल लगता है, अतः तिर्यचके सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा। जो तिर्यंच सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिके साथ एक समय तक रहा और दूसरे समयमें वह उपशमसम्यग्दृष्टि हो गया उसके सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल एक समय कहा। तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान जानना, क्योंकि ओघमें कहा गया उत्कृष्ट अन्तरकाल तियंचोंके ही घटित होता है। एक अन्तर्मुहूर्तमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना दो बार प्राप्त हो सकती है और ओघसे विसंयोजनाके अन्तिम समयमें अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थिति होती है जो तिथंचोंके भी सम्भव है अतः इनके अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल ओघके समान अन्तर्मुहूर्त कहा। तियचोंमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाका उत्कृष्ट अन्तरकाल अर्ध पुद्गलपरिवर्तन है, अतः इनके अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर काल ओघके समान कुछ कम अर्धं पुद्गल परिवर्तन कहा। तथा तिर्यंचोंके चौबीस प्रकृतिक स्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है अतः इनके अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्महर्त कहा। तथा तिर्यंचोंके चौबीस प्रकृतिक स्थानका सत्त्वकाल कुछ कम तीन पल्य है, अत: इनके अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्य कहा। जो एकेन्द्रिय जीव सोलह कषायोंकी जघन्य स्थितिके साथ पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न होता है उसके प्रतिपक्ष प्रकृतियों के बन्ध कालके अन्तिम समयमें सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति प्राप्त होती है। अब यदि दूसरी बार यह जीव इसी स्थितिको प्राप्त करना चाहे तो उसे कमसे कम पल्यका असंख्यातवां भाग प्रमाण काल लगेगा, क्यों कि किसी एकेन्द्रियको पंचेन्द्रियके योग्य स्थितिका घात करके एकेन्द्रियके योग्य जघन्य स्थितिको प्राप्त करनेमें पल्यका असंख्यातवां भाग प्रमाण काल लगता है, अतः तिथंचोंके सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल पल्यके . असंख्यातवें भाग प्रमाण कहा। तथा एकेन्द्रियोंका उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। अब यदि किसी एकेन्द्रियने उक्त कालके प्रारम्भ और अन्तमें पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिको प्राप्त किया तो उसके सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका उक्त काल प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर काल पाया जाता है। तियचोंके सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति एक समयके लिये प्राप्त होती है, अतः इनके उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय कहा। ६५६१. पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तियेच योनिमतियों में मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है । तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्वसे Jain Education International Fol Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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